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महेश राठी दक्षिणी सूडान
दक्षिणी सूडान के रूप में दुनिया के क्षितिज पर एक और नये देश का उदय हो गया। 83 लाख की आबादी वाला यह नवजात मुल्क बेशक धन बल और सैन्य शक्ति में अफ्रीका के बाकी देशों के सामने अभी कमतर हो लेकिन खनिज सम्पदा, खासकर पेट्रो प्रदाथरे से समृद्ध इस देश के उभार की धमक 9 जुलाई को पूरी दुनिया ने महसूस की। आखिरकार क्षेत्रफल में अफ्रीका के सबसे बड़े देश सूडान का जनमत संग्रह के आधार पर औपचारिक विभाजन पूरा हुआ। दशकों तक चले गृह युद्ध के बाद 2005 में हुए शांति समझौते के अनुरूप इस वर्ष जनवरी में हुए जनमत संग्रह ने इस विभाजन पर निर्णायक मुहर लगा दी थी। लेकिन उम्मीदों और नए सपनों के अलावा संसाधनों के बंटवारे और नस्लीय वैमनस्य की चुनौतियां अब भी दोनों देशों के लिए असली परीक्षा की तरह हैं। वास्तविकता यह है कि इस विभाजन की पटकथा ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा जनवरी 1956 में ही लिख दी गई थी। जब ब्रिटेन द्वारा सूडान को मिस्र से अलग एक स्वतंत्र देश के रूप में स्थापित किया गया। हालांकि दक्षिण सूडान के अभिजात्य वर्ग के एक विशेष हिस्से ने उत्तरी भाग में सत्ता चले जाने के भय से इसका मुखर विरोध भी किया क्योंकि इस आजादी के पहले से ही उत्तरी और दक्षिणी सूडान में नस्लीय कारणों से गृह युद्ध भड़कने की स्थिति बन चुकी थी। इस आजादी के समय सूडान का उत्तरी भाग नासिर के साम्राज्यवाद विरोधी आन्दोलन के साथ खड़ा था तो ब्रिटेन ने दक्षिण के अभिजात्य वर्ग के उत्तर-विरोध को भांपकर उसका समर्थन करना शुरू कर दिया था। आज जो देश सूडान को नस्लीय हिंसा से बचाने का तर्क गढ़ कर विभाजन का समर्थन कर रहे हैं दरअसल, वही इस नस्लीय बंटवारे और हिंसा के रचयिता भी हैं। 1972 से लेकर 1983 के छोटे से समय को छोड़कर सूडान हमेशा एक ऐसे नस्लीय गृह युद्ध का शिकार रहा है जिसकी पटकथा उपनिवेशवादी शासकों द्वारा लिखी गई। उन्नीसवीं सदी में सूडान पर फतह हासिल करने के बाद ब्रिटेन ने सूडान को मिस्र में सम्मिलित कर दिया और यहीं से ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने सूडान को अपनी ‘बांटो और राज करो’ की प्रयोगशाला में परिवर्तित कर दिया। अंग्रेजों ने सूडान में नस्लीय भेदभाव के आधार पर प्रशासनिक व्यवस्था कायम करने की नींव रखी। सत्ता पर उन उत्तर सूडानियों का अधिकार हो गया जो भूरे थे और यूरोपीय गोरी नस्ल के अधिक करीब समझे जाते थे। इसी रंगभेद और नस्लीय भेदभाव की मानसिकता को संस्थागत रूप देते हुए उत्तर और दक्षिण सूडान के बीच बंटवारे की एक स्थायी रेखा अंग्रेजी उपनिवेशवाद ने खींच दी। इसी के कारण सूडान का उत्तरी भाग सदैव काहिरा से निर्देशित होता रहा, तो दक्षिण भाग नैरोबी से दिशा निर्देश लेता रहा। इसके अलावा अंग्रेजों ने सूडान में ‘बंद जिलों’ की भी एक विशेष एवं जटिल व्यवस्था लागू की जिसके कारण एक देश होने के बावजूद कोई भी उत्तर से दक्षिण तक पूरे सूडान की यात्रा नहीं कर सकता था। इस व्यवस्था से अंग्रेजों ने सूडान के उत्तर एवं दक्षिण भाग के मध्य परम्परागत और व्यापारिक रिश्तों को बिल्कुल खत्म कर डाला। तत्पश्चात उत्तरी सूडान में इस्लाम और अरबी भाषा के प्रचार और प्रयोग की छूट दी गई तो दक्षिण सूडान के लिए दोनों को एकदम निषिद्ध कर दिया गया। दक्षिण को जिन ईसाई मिशनरियों के सुपुर्द किया गया उनकी मानवतावादी शिक्षण व्यवस्था से दक्षिण के नौजवानों ने ‘अफ्रीका अफ्रीकियों के लिए’
सीखकर ही अपने देश के बंटवारे की नींव रखी। दक्षिण सूडान की बहुमत आबादी ने अपने
बेहतर भविष्य के लिए जनमत संग्रह में नए देश के लिए मत दिया था। परंतु इस गरीब देश
के अमीर संसाधनों के बंटवारे की जमीन से अब भी जंग के बादल छंटे नहीं हैं। सवाल 67
करोड़ बैरल तेल भंडार के बंटवारे का तो है ही, 1050 लाख हेक्टेयर खेतीयोग्य जमीन के
साथ ही नील नदी के जल भंडार को बांटने का भी है। इस समृद्धि का अधिकतर हिस्सा सूडान
के दक्षिणी भाग में है। यदि इन प्राकृतिक संसाधनो का बंटवारा हो भी जाता है तो कई
प्रमुख उद्योगों के बंटवारे के सवाल फिर से अनुत्तरित ही रह जाएंगे। अधिकतर तेल
भंडार यदि दक्षिण सूडान में हैं तो कच्चे तेल को उपयोग में लाने लायक बनाने वाले
तेलशोधन कारखाने उत्तरी सूडान में स्थित हैं, उनके बंटवारे का सूत्र तलाशना कठिन
है। बहरहाल, सूडान में तेल खनन से लेकर तेलशोधन तक का सारा काम नामी बहुराष्ट्रीय
कम्पनियां कर रही हैं जो मुनाफे के बंटवारे में हमेशा की तरह बिचौलिये की भूमिका
निभा सकती हैं। परन्तु अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह कि अपने देश के विभाजन के
लिए मत देने वाले भूखे और गरीब आम सूडानी नागरिकों को अंततोगत्वा क्या हासिल होगा? |
मंगलवार, 12 जुलाई 2011
एक देश के सपनों की हकीकत
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