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रविवार, 17 जुलाई 2011

मंत्रिमंडल में फेरबदल के राजनीतिक निहितार्थ

महेश राठी 
लंबे समय से घोटालों और भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरी केंद्र सरकार की चेहरा बदलने की कवायद राजनीतिक संतुलन साधने की कसरत भर बनकर रह गई। एक लंबे इंतजार के बाद आखिरकार केंद्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल हो ही गया। मंत्रिमंडल में फेरबदल के लिए मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी के बीच चार चक्र की बातचीत से फेरबदल पर कई तरह की अटकलें लगाने के बाद अधिकतर राजनीतिक विश्लेषक इस फेरबदल को निस्तेज और अप्रभावी बदलाव कहकर प्रधानमंत्री की कमजोर इच्छाशक्ति को रेखांकित कर रहे हैं कि मोहन सिंह चाहते तो इस अवसर का फायदा अपने आप को अधिक ताकतवर बनाने के लिए उठा सकते थे। हालांकि इस बदलाव के राजनीतिक निहितार्थ जितने दिखाई पड़ते हैं, उससे कहीं अधिक हैं। यह फेरबदल राहुल गांधी के सरकार में बढ़ते दखल और सरकार पर नौकरशाही के घटते प्रभाव का स्पष्ट संदेश दे रहा है तो दूसरी ओर इस संदेश में कांग्रेस की भावी रणनीति को स्पष्ट रूप से पढ़ा जा सकता है। मंत्रिमंडल फेरबदल से पहले मनमोहन सरकार की एक बेदाग छवि गढ़ने की कवायद के रूप में कुछ गैर राजनीतिक चेहरों को सरकार में शामिल किए जाने की चर्चा जोरों पर थी। इन्हीं चर्चाओं के बीच मोंटेक सिंह अहलूवालिया, अशोक गांगुली और सैम पित्रोदा के नामों की चर्चा भी राजनीतिक गलियारों और मीडिया में आसानी से सुनी जा सकती थी, लेकिन मंत्रिमंडल की अंतिम सूची तैयार होने तक ये तीनों नाम पूरे परिदृश्य से गुम हो चुके थे। यह कोई अकारण नहीं कि इस फेरबदल को लेकर मनमोहन सिंह को चार बार सोनिया गांधी से लंबी वार्ता करनी पड़ी। दरअसल, यह उन अंतरविरोधों की अनुगूंज थी, जिसकी शुरुआत संप्रग-2 सरकार बनने के बाद एनएसी के गठन से हुई थी। संप्रग-1 के समय बाहर से समर्थन दे रहे वामपंथी दलों के दबाव में सरकार को एक सोशल एजेंडे पर रखने के लिए राष्ट्रीय सलाहाकार परिषद का गठन करना पड़ा था, लेकिन वर्तमान एनएसी कांग्रेस की उस छिपी रणनीति का औजार है, जिसे लागू करने की कवायद कांग्रेस के रणनीतिकारों ने शुरू कर दी है। हालांकि मनमोहन सिंह और कांग्रेस की कार्यशैली में एक बुनियादी और स्वाभाविक फर्क भी है। मनमोहन सिंह पुराने नौकरशाह होने के नाते जहां नौकरशाही पर अधिक भरोसा करते हैं तो वहीं कांग्रेस को अपनी राजनीतिक विरासत और परंपराओं पर ही अधिक विश्वास है। अपनी इसी स्वाभाविक कार्यशैली के कारण प्रधानमंत्री मोंटेक सिंह अहलूवालिया, अशोक गांगुली और सैम पित्रोदा सरीखे चेहरों को मंत्रिमंडल में रखना चाहते थे, लेकिन सोनिया गांधी और कांग्रेस की अपनी ही राजनीतिक और व्यक्तिगत मजबूरियां थी। सोनिया गांधी का एजेंडा राहुल गांधी के लिए सत्ता की राह प्रशस्त करना है, न कि मनमोहन सिंह की छवि को बचाने की बेकार कसरत। यह मंत्रिमंडल फेरबदल उसी मंजिल की ओर बढ़ने का एक निर्णायक मोड़ है। वास्तव में इस मंत्रिमंडल में भविष्य की कांग्रेसी रणनीति के कई संकेत छिपे हैं। कांग्रेस मनमोहन सिंह के कॉरपोरेट विकास को अपने लिए मुफीद मानते हुए उसमें अवरोध पैदा नहीं करना चाह रही है तो वहीं उसे इतना अनियंत्रित भी नही होने देना चाहती है कि वहां से वापसी भी संभव न हो सके। यही कारण है कि गांधी परिवार के बेहद करीबी जयराम रमेश रूपी रुकावट को वन एवं पर्यावरण से हटाया भी गया तो दूसरी तरफ उन्हें तरक्की देकर सामाजिक रूप अधिक महत्वपूर्ण मंत्रालय का भी कार्यभार दिया गया, जहां जयराम रमेश की भूमिका अवरोधक की नहीं, बल्कि अधिक रचनात्मक और उपयोगी हो सकती हैं। दूसरी तरफ वन एवं पर्यावरण मंत्रालय मनमोहन सिंह के चहेते और कॉरपोरेट विकास के मुखर समर्थक चिदंबरम की करीबी जयंती नटराजन को दिया गया है तो साथ ही राहुल गांधी के बेहद करीबी और उनके सचिव भंवर जितेंद्र सिंह की गृह राज्यमंत्री के रूप में नियुक्ति के भी निहितार्थ हैं। इसके अलावा गठबंधन सहयोगियों के हितों को सुरक्षित रखकर भी सहयोगियों को साथ रखने का संकेत भी इस फेरबदल से दिया गया है। बहरहाल, राजनीतिक विश्लेषक कुछ भी कहें, लेकिन इस मंत्रिमंडल में दिखाई पड़ने वाले शह और मात के खेल की नई बिसात ने भविष्य की रणनीति के संकेत स्पष्ट कर दिए हैं। 

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