महेश राठी
राहुल गांधी का महत्वाकांक्षी भूमि अधिग्रहण बिल भी उनकी तरह ही स्थायी राजनीतिक भ्रम का शिकार जान पड़ता है। जिस प्रकार कांग्रेस के युवा महासचिव आर्थिक विकास के निगमीकृत मॉडल के पैरवीकार हैं मगर सड़क पर उतरकर सामाजिक सरोकारों के लिए संघर्ष की बात करते हैं ठीक उसी तर्ज पर संप्रग का भूमि अधिग्रहण बिल भी तैयार हुआ जान पड़ता है। यह ना तो शहरीकरण और विकास को गति दे पाएगा ना ही किसानों के दीर्घकालिक एवं वास्तविक हितों की रक्षा का साधन बन पाएगा। यही कारण है इस बिल में रियल एस्टेट के बडे़ खिलाडियों से लेकर उद्योगपतियों और किसान नेताओं तक सबको नाउम्मीदी ही नजर आ रही है। रियल एस्टेट कंपनियां इस भूमि अधिग्रहण बिल को नवोदित शहरी मध्यवर्ग और शहरीकरण के लिए बडे़ अवरोध के रूप में पेश कर रही हैं। उनका मानना है कि इस बिल के कारण अपने घर का सपना देखने वालों के लिए आवासीय इकाइयों के लिए अधिग्रहीत होने वाली जमीन के महंगा होने के कारण घर की चाह राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में कम से कम साठ प्रतिशत तक मंहगी हो जाएगी। यह शंका बिल के उस प्रावधान के कारण है जिसमें कहा गया है कि ग्रामीण क्षेत्र में बाजार भाव से चार गुना और शहरी क्षेत्र में दो गुना मुआवजा किसानों को दिया जाएगा। सवाल उस बाजार दर का है जिस पर मुआवजा दिया जाएगा और बाजार मूल्य तय करने का तंत्र क्या होगा। यहीं किसान नेता इस बिल पर सवाल उठा रहे हैं। वास्तव में यहां बाजार मूल्य कोई वास्तविक बाजार मूल्य नहीं है। बाजार मूल्य की अभी तक स्थापित संकल्पना सरकार द्वारा निर्धारित सर्कल दर मानी जाती रही है और यह बाजार मूल्य बाजार से बेहद कम रहता आया है। इसीलिए बाजार मूल्य से चार गुना और दो गुना मुआवजा देने की बात की जा रही है। मुआवजे की यह दर भूमि अधिग्रहण बिल के मूल प्रस्ताव छह गुना से घटाकर चार और दो गुना की गई है। हालांकि यह चार गुना और दो गुना मुआवजा भी वास्तविक बाजार मूल्य से काफी कम है। असल में बाजार मूल्य हमेशा सरकार द्वारा निर्धारित सर्कल दर से कई गुना अधिक होता है। ग्रेटर नोएडा, जहां से इस भूमि अधिग्रहण बिल को नए सिरे से संशोधित करने की पटकथा लिखी गई, वहीं यदि किसानों की जमीन के लिए निर्धारित सर्कल रेट और बाजार मूल्य की तुलना करें तो संभवतया स्थिति काफी हद तक स्पष्ट हो सकती है। किसानों को मिलने वाले मुआवजे की दर जहां 400 रुपये वर्ग मीटर से लेकर 800 रुपये तक रही तो वहीं बिल्डरों द्वारा विकसित की गई जमीन का भाव चालीस हजार से एक लाख वर्ग मीटर तक था। सर्कल रेट से 10 गुना से बीस गुना तक का यह अंतर ही दरअसल पूरे फसाद का कारण है। अब इस नए बिल के कानून बनने के बाद यह तय है कि रियल एस्टेट कंपनियों के साथ मिलकर सर्कल रेट को नीचे रखते हुए बाजार भाव को कम रखने की नई सरकारी कसरत की जमीन तैयार हो जाएगी। वास्तव में 117 साल पुराने कानून को बदलने वाले नए भूमि अधिग्रहण बिल से किसानों की वे आकांक्षाए पूरी होने की आशा बेहद कम है जिसके लिए लंबे समय से संघर्ष चल रहा था। किसानों के लिए उनकी जमीन पीढ़ी दर पीढ़ी उनके रोजगार का एकमात्र कारण हैं। हालांकि नए बिल में किसानों के लिए वैकल्पिक रोजगार का प्रावधान तो है परंतु उसकी कोई बाध्यता नहीं है, बल्कि किसान परिवार के एक व्यक्ति को रोजगार नहीं दे पाने की स्थिति में पांच लाख का विकल्प भी मौजूद है। किसान की जमीन को अधिग्रहीत करना भू स्वामियों के मुआवजे और पुनर्वास से कही बड़ा एक पुराने भूमि संबंधों को पुनर्वासित करने का सवाल है। नए बिल में ऐसी भूमिहीन आबादी की चर्चा तो जरूर है परंतु विकसित भूमि में उनके लिए कितनी जगह सुरक्षित होगी और उनके रोजगार एवं पेंशन की क्या व्यवस्था होगी इस संबंध में स्पष्टता का अभाव है। इस बिल से बेशक उद्योगपति खफा हों, रियल एस्टेट परेशान दिखाई दे और किसान कुछ खास ना पा सकें मगर राहुल गांधी की उलझन भरी राजनीति को कुछ समय के लिए इठलाने का मौका अवश्य मिल गया है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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