महेश राठी
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में भ्रष्टाचार के बाद सबसे अधिक चर्चित मुद्दा चुनाव सुधार हैं। भ्रष्टाचार पर आंदोलन के बाद अब टीम अन्ना ने चुनाव सुधारों के लिए संघर्ष शुरू करने की घोषणा कर दी है। हालांकि अभी उनके चुनाव सुधारों में राईट टु रिजेक्ट और राईट टु रिकॉल अर्थात उम्मीदवारों को खारिज करते हुए वोट नहीं करने का अधिकार और जनप्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार ही है। उक्त दोनों अधिकार चुनाव सुधारों से अधिक लोकलुभावन नारे ही जान पड़ते हैं। जहां इनके हासिल होने से नागरिक अधिकारों में एक रोमानी बढ़ोतरी का एहसास होता है तो वहीं बहुमत आधारित चुनाव प्रणाली में बगैर संपूर्ण तार्किक सुधारों के दुनिया के सबसे लोकतंत्र के लिए इन अधिकारों में निहित संभावित खतरों की आहट भी सुनाई देती है।
वर्तमान भारतीय लोकतंत्र एक प्रतिनिधिक लोकतंत्र है, जो बहुमत आधारित चुनाव प्रणाली पर टिका है। वोट के केंद्र में होने के बावजूद भी हमारी वर्तमान लोकतांत्रिक प्रणाली वोट आधारित नहीं सीट आधारित है। बहुमत आधारित इस चुनाव प्रणाली की विडंबना यह है कि इसमें चुने हुए बहुसंख्यक उम्मीदवार अल्पमत वोटों से चुने हुए होते हैं।
चुनाव प्रणाली की यह स्थिति राजनेताओं एवं उम्मीदवारों को छोटे समुदायों को लामबंद करके अपने लिए वोटबैंक तैयार करने की संभावना पैदा करती है। वोटबैंक बनाकर सत्ता प्राप्त करने की यही व्यवस्था धनबल और बाहुबल की राजनीति को जन्म देती है, जिसमें आज का भारतीय लोकतंत्र पूरी तरह से आकंठ डूबा दिखाई पड़ता है। धनबल और बाहुबल की यही राजनीति अंततोगत्वा राजनीति को एक बेहद सुरक्षित लाभप्रद व्यवसाय में परिवर्तित कर देती है। राजनीति की वर्तमान देशा के कारण ही आज देश के किसी भी गरीब ईमानदार आम आदमी के लिए राजनीति में भाग लेकर सफल होना किसी दिवास्वप्न से कम नहीं है।
ऐसी स्थिति में राईट टु रिजेक्ट अर्थात मनपसंद उम्मीदवार के नहीं होने पर सबको खारिज करने का अधिकार वर्तमान चुनाव प्रणाली के लिए बहुआयामी संकटों का कारण बन सकता है। एक निर्धारित सीमा से अधिक मतदान नहीं होने पर दोबारा चुनाव होना और बार बार चुनाव होना एक लुभावनी लोकतांत्रिक व्यवस्था की कल्पना तो हो सकता है, परंतु व्यावहारिक नहीं। एक तरफ यह व्यवस्था अल्पमत वोटों के आधार पर होने वाली सत्ता प्राप्ति की व्यवस्था को मजबूत राजनीतिक संगठनों द्वारा संस्थागत रूप में बदल सकता है तो वहीं दूसरी तरफ बार-बार चुनाव केवल उम्मीदवारों के लिए ही नहीं, सरकार के चुनाव खर्च को भी बढ़ाने वाला होगा, जो आखिरकार अर्थव्यवस्था एवं राष्ट्रीय विकास पर एक अनावश्यक कुठाराघात ही होगा।
इसके अतिरिक्त वर्तमान लोकतंत्र का सबसे त्रासद पहलू यह है कि निम्न आय और मध्यम आय वाला आम भारतीय इस चुनाव व्यवस्था में चुने जाने की प्रतिस्पर्धा से बाहर हो चुका है और खारिज करने के इस अधिकार के कारण एक ही निर्वाचन क्षेत्र में कई बार चुनाव होने का खतरा उसे पूरी तरह एवं निर्णायक रूप से इस चुनावी स्पर्धा से बाहर कर देगा और न केवल गरीब व्यक्ति, वरन वो राजनीतिक दल भी जो अपने काडर के दम पर बेहद कम संसाधनों के साथ चुनाव मैदान में उतरते हैं, उनके लिए भी इस अधिकार का चयन आत्महंता प्रयास ही होगा। इसीलिए बगैर तर्कसम्मत चुनाव सुधार के राइट टु रिजेक्ट का यह विचार जितना लुभावना एवं रोमानी जान पड़ता है, उसके खतरे भी उतने ही बड़े हैं।
जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि को वापस बुलाने को अधिकार आम मतदाता के अधिकारों में दोगुनी वृद्धि की तरह जान पड़ता है। मूल्यहीन हो चुके वर्तमान राजनीतिक परिवेश में इस तरह का अधिकार मतदाताओं को एक नई जनवादी रोमानियत से भर सकता है। परंतु विडंबना यह है कि जैसी वर्तमान लोकतंत्र की स्थिति है, उसमें इस अधिकार के दुरुपयोग की आशंका काफी बड़ी है। धनबल और बाहुबल के आधार सीट जीतने और बड़े व्यवसायिक घरानों द्वारा राजनीतिक दलों से सीटों की खरीद फरोख्त के वर्तमान दौर में इस अधिकार के भी अपनी तरह के जोखिम हैं।
विगत दिनों कर्नाटक में अवैद्य खनन में लिप्त एक व्यावसायिक घराने द्वारा पिछले राज्य विधानसभा चुनावों में जिस प्रकार मनपसंद सीटों से अपने पसंदीदा उम्मीदवारों को लेकर सौदेबाजी का मामला प्रकाश में आया, उसने भारतीय लोकतंत्र में धनबल और बाहुबल की एक नई अवस्था को उजागर कर डाला।
लोकतंत्र के वर्तमान दौर में जब निगमीकृत विकास अपने हितों के अनुरूप लोकतांत्रिक संस्थाओं पर काबिज होना चाहता है तो ऐसी स्थिति में अपने हितों के अनुरूप लोगों के चुनने में धनबल का प्रयोग होना स्वाभाविक है। परंतु जनप्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार प्राप्त होने के बाद आने वाले समय में हितों के लिए नुकसानदेह जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने के लिए धनबल और बाहुबल की राजनीति का एक नया ही दौर शुरू हो जाएगा।
दरअसल राइट टु रिजेक्ट और राइट टु रिकॉल से कहीं अधिक व्यापक और गंभीर है। जहां तक चुनाव प्रणाली में बुनियादी सुधारों का सवाल है तो एक स्वस्थ लोकतंत्र की बहाली के लिए उसे धनबल और बाहुबल की राजनीति से मुक्त किए जाने के साथ वर्तमान समय में सीट आधारित चुनाव प्रणाली की अपेक्षा वोट आधारित प्रणाली में बदले जाने की जरूरत है। वर्तमान परिस्थितियों में भारत में आनुपातिक चुनाव प्रणाली सरीखी ऐसी चुनाव प्रणाली अपनाए जाने की आवश्यकता है, जिसमें वोट बैंक बनाने के लिए सांप्रदायिक व जातिवादी शक्तियों द्वारा जारी सामाजिक विभाजन पर अंकुश लगाया जा सके और मतदाता धनबल और बाहुबल से नहीं, वरन राजनीतिक दलों की नीतियों से लामबंद हो और साथ ही भारतीय समाज में सबसे निचले पायदान पर खड़े अंतिम व्यक्ति के लिए भी देश की सर्वोच्च पंचायत में बैठने की संभावनाओं के नए द्वार खुल सकें।
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में भ्रष्टाचार के बाद सबसे अधिक चर्चित मुद्दा चुनाव सुधार हैं। भ्रष्टाचार पर आंदोलन के बाद अब टीम अन्ना ने चुनाव सुधारों के लिए संघर्ष शुरू करने की घोषणा कर दी है। हालांकि अभी उनके चुनाव सुधारों में राईट टु रिजेक्ट और राईट टु रिकॉल अर्थात उम्मीदवारों को खारिज करते हुए वोट नहीं करने का अधिकार और जनप्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार ही है। उक्त दोनों अधिकार चुनाव सुधारों से अधिक लोकलुभावन नारे ही जान पड़ते हैं। जहां इनके हासिल होने से नागरिक अधिकारों में एक रोमानी बढ़ोतरी का एहसास होता है तो वहीं बहुमत आधारित चुनाव प्रणाली में बगैर संपूर्ण तार्किक सुधारों के दुनिया के सबसे लोकतंत्र के लिए इन अधिकारों में निहित संभावित खतरों की आहट भी सुनाई देती है।
वर्तमान भारतीय लोकतंत्र एक प्रतिनिधिक लोकतंत्र है, जो बहुमत आधारित चुनाव प्रणाली पर टिका है। वोट के केंद्र में होने के बावजूद भी हमारी वर्तमान लोकतांत्रिक प्रणाली वोट आधारित नहीं सीट आधारित है। बहुमत आधारित इस चुनाव प्रणाली की विडंबना यह है कि इसमें चुने हुए बहुसंख्यक उम्मीदवार अल्पमत वोटों से चुने हुए होते हैं।
चुनाव प्रणाली की यह स्थिति राजनेताओं एवं उम्मीदवारों को छोटे समुदायों को लामबंद करके अपने लिए वोटबैंक तैयार करने की संभावना पैदा करती है। वोटबैंक बनाकर सत्ता प्राप्त करने की यही व्यवस्था धनबल और बाहुबल की राजनीति को जन्म देती है, जिसमें आज का भारतीय लोकतंत्र पूरी तरह से आकंठ डूबा दिखाई पड़ता है। धनबल और बाहुबल की यही राजनीति अंततोगत्वा राजनीति को एक बेहद सुरक्षित लाभप्रद व्यवसाय में परिवर्तित कर देती है। राजनीति की वर्तमान देशा के कारण ही आज देश के किसी भी गरीब ईमानदार आम आदमी के लिए राजनीति में भाग लेकर सफल होना किसी दिवास्वप्न से कम नहीं है।
ऐसी स्थिति में राईट टु रिजेक्ट अर्थात मनपसंद उम्मीदवार के नहीं होने पर सबको खारिज करने का अधिकार वर्तमान चुनाव प्रणाली के लिए बहुआयामी संकटों का कारण बन सकता है। एक निर्धारित सीमा से अधिक मतदान नहीं होने पर दोबारा चुनाव होना और बार बार चुनाव होना एक लुभावनी लोकतांत्रिक व्यवस्था की कल्पना तो हो सकता है, परंतु व्यावहारिक नहीं। एक तरफ यह व्यवस्था अल्पमत वोटों के आधार पर होने वाली सत्ता प्राप्ति की व्यवस्था को मजबूत राजनीतिक संगठनों द्वारा संस्थागत रूप में बदल सकता है तो वहीं दूसरी तरफ बार-बार चुनाव केवल उम्मीदवारों के लिए ही नहीं, सरकार के चुनाव खर्च को भी बढ़ाने वाला होगा, जो आखिरकार अर्थव्यवस्था एवं राष्ट्रीय विकास पर एक अनावश्यक कुठाराघात ही होगा।
इसके अतिरिक्त वर्तमान लोकतंत्र का सबसे त्रासद पहलू यह है कि निम्न आय और मध्यम आय वाला आम भारतीय इस चुनाव व्यवस्था में चुने जाने की प्रतिस्पर्धा से बाहर हो चुका है और खारिज करने के इस अधिकार के कारण एक ही निर्वाचन क्षेत्र में कई बार चुनाव होने का खतरा उसे पूरी तरह एवं निर्णायक रूप से इस चुनावी स्पर्धा से बाहर कर देगा और न केवल गरीब व्यक्ति, वरन वो राजनीतिक दल भी जो अपने काडर के दम पर बेहद कम संसाधनों के साथ चुनाव मैदान में उतरते हैं, उनके लिए भी इस अधिकार का चयन आत्महंता प्रयास ही होगा। इसीलिए बगैर तर्कसम्मत चुनाव सुधार के राइट टु रिजेक्ट का यह विचार जितना लुभावना एवं रोमानी जान पड़ता है, उसके खतरे भी उतने ही बड़े हैं।
जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि को वापस बुलाने को अधिकार आम मतदाता के अधिकारों में दोगुनी वृद्धि की तरह जान पड़ता है। मूल्यहीन हो चुके वर्तमान राजनीतिक परिवेश में इस तरह का अधिकार मतदाताओं को एक नई जनवादी रोमानियत से भर सकता है। परंतु विडंबना यह है कि जैसी वर्तमान लोकतंत्र की स्थिति है, उसमें इस अधिकार के दुरुपयोग की आशंका काफी बड़ी है। धनबल और बाहुबल के आधार सीट जीतने और बड़े व्यवसायिक घरानों द्वारा राजनीतिक दलों से सीटों की खरीद फरोख्त के वर्तमान दौर में इस अधिकार के भी अपनी तरह के जोखिम हैं।
विगत दिनों कर्नाटक में अवैद्य खनन में लिप्त एक व्यावसायिक घराने द्वारा पिछले राज्य विधानसभा चुनावों में जिस प्रकार मनपसंद सीटों से अपने पसंदीदा उम्मीदवारों को लेकर सौदेबाजी का मामला प्रकाश में आया, उसने भारतीय लोकतंत्र में धनबल और बाहुबल की एक नई अवस्था को उजागर कर डाला।
लोकतंत्र के वर्तमान दौर में जब निगमीकृत विकास अपने हितों के अनुरूप लोकतांत्रिक संस्थाओं पर काबिज होना चाहता है तो ऐसी स्थिति में अपने हितों के अनुरूप लोगों के चुनने में धनबल का प्रयोग होना स्वाभाविक है। परंतु जनप्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार प्राप्त होने के बाद आने वाले समय में हितों के लिए नुकसानदेह जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने के लिए धनबल और बाहुबल की राजनीति का एक नया ही दौर शुरू हो जाएगा।
दरअसल राइट टु रिजेक्ट और राइट टु रिकॉल से कहीं अधिक व्यापक और गंभीर है। जहां तक चुनाव प्रणाली में बुनियादी सुधारों का सवाल है तो एक स्वस्थ लोकतंत्र की बहाली के लिए उसे धनबल और बाहुबल की राजनीति से मुक्त किए जाने के साथ वर्तमान समय में सीट आधारित चुनाव प्रणाली की अपेक्षा वोट आधारित प्रणाली में बदले जाने की जरूरत है। वर्तमान परिस्थितियों में भारत में आनुपातिक चुनाव प्रणाली सरीखी ऐसी चुनाव प्रणाली अपनाए जाने की आवश्यकता है, जिसमें वोट बैंक बनाने के लिए सांप्रदायिक व जातिवादी शक्तियों द्वारा जारी सामाजिक विभाजन पर अंकुश लगाया जा सके और मतदाता धनबल और बाहुबल से नहीं, वरन राजनीतिक दलों की नीतियों से लामबंद हो और साथ ही भारतीय समाज में सबसे निचले पायदान पर खड़े अंतिम व्यक्ति के लिए भी देश की सर्वोच्च पंचायत में बैठने की संभावनाओं के नए द्वार खुल सकें।
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