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शनिवार, 1 अक्तूबर 2011

गहराता वैश्विक वित्त संकट

महेश राठी
पश्चिमी दुनिया का आर्थिक संकट, उससे निपटने के लिए सरकारों द्वारा कटौती उपायों की घोषणा और जनता द्वारा कथित मितव्ययिता के उपायों का विरोध विकास की खगोलीय अवधारणा की विफलता के साथ वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए खतरे की नई आहट है। भूमंडलीकरण के रणनीतिकार फिर से भविष्य को भय और आधारभूत गलतियों के पूर्वाभास की तरह देख रहे हैं।
दुनिया की सभी अर्थव्यवस्थाओं के वित्तीय संसाधनों का इस्तेमाल बाजार अर्थप्रणाली के स्वामियों के आर्थिक संकटों के निपटारे के लिए किया जा रहा है।

ब्रिटेन, यूनान, स्पेन से लेकर इटली और पूर्वी यूरोप तक के सभी राजनेता और अर्थशास्त्री संकट के कारणों से अधिक पूरी बहस को संकट के उपायों पर केंद्रित कर रहे है। सभी एक ही धुन पर अभूतपूर्व एकजुटता के साथ कटौती गीत गा रहे हैं। विकास के इस मॉडल की दुविधा हालांकि यहीं खत्म नहीं होती। कुछ महीने पहले तक ऋण पाने के लिए समझौता करने वाले यूनान जैसे देश फिर से अधिक गहरे आर्थिक संकटों से संघर्ष कर रहे हैं और आनेवाले कुछ दिनों में उन्हें नई मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा, क्योंकि तथाकथित निगमीय विकास को मिलने वाला राजकोषीय प्रोत्साहन और राजस्व छूट अर्थव्यवस्था के ऋण संकट में बढ़ोतरी का कारण बन रहे हैं।

कई देशों का कर्ज उसके सकल घरेलू उत्पाद के नब्बे या सौ प्रतिशत से भी अधिक हो चुका है। इस ऋण भार से निपटने के लिए यूरोपीय देशों की सरकारें अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और यूरोपीय सेंट्रल बैंक के निर्देश पर राजकोषीय घाटे में कमी लाने की कोशिश कर रही हैं। अब इस कटौती का भार मध्यवर्गीय परिवारों की जेबों से निकालने के लिए पूरी पश्चिमी दुनिया में उनकी खर्च कटौती की शुरुआत हो चुकी है। इससे उस वर्ग की वास्तविक आय और सामाजिक सुरक्षा बुरी तरह प्रभावित हो रही है। यह कटौती जहां मध्यवर्गीय कामगारों की आय और सामाजिक सुरक्षा को ध्वस्त कर रही है, वहीं बाजार के स्वामियों और उच्च मध्यवर्ग के लिए समृद्धि का कारण भी बन रही है।

कमोबेश यही स्थिति भारत सहित सभी एशियाई देशों में पैदा हुई है। भारत का कुल ऋण उसके सकल घरेलू उत्पाद के 56 प्रतिशत के आसपास है। भारतीय विकास के नीति निर्माता ऊंची विकास दर के कारण इसे अपनी एक उपलब्धि कह सकते हैं। परंतु विकास के इस वितरण की तसवीर आर्थिक संकट में फंसे पश्चिमी देशों की तुलना में कहीं ज्यादा खराब है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के निर्देश पर मितव्ययिता का अर्थ है आम आदमी की आय में कटौती, जो निश्चय ही अर्थव्यवस्था में प्रभावी मांग को नकारात्मक रूप से प्रभावित करेगा।

फिर मांग में गिरावट का अर्थ है मांग और आपूर्ति के संतुलन का बिगड़ना। मांग और आपूर्ति का संतुलन बिगड़कर ही अर्थव्यवस्था में मंदी का कारण बनता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद केन्स के राजकीय हस्तक्षेप के सिद्धांत पर चलकर ही विश्व अर्थव्यवस्था ने 1930 की महामंदी से वापसी की थी। मार्क्सवादी अर्थशास्त्री न होने के बावजूद केन्स ने निजीकरण की अराजकता और पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को नियमित करने के लिए राजकीय हस्तक्षेप की भूमिका को रेखांकित किया था।

अब आर्थिक विकास की खगोलीय अवधारणा के पैरोकार पूंजी संचय के जुनून में भूमंडलीकरण के इस विरोधाभासी संबंध को समझना ही नहीं चाहते कि वर्तमान आर्थिक संकट बढ़ते राजकीय व्यय के कारण नहीं, बल्कि उनकी उत्पादन-विरोधी पूंजी संचय की नीतियों के कारण है।

ऐसा भी नहीं है कि यह केवल पश्चिमी देशों का ही संकट है। वर्तमान विकास की तरह आर्थिक संकट की प्रवृति भी ग्लोबल है, जो बढ़ते कुल राष्ट्रीय ऋण, औद्योगिक घरानों को मिलने वाले राजकोषीय प्रोत्साहन और राजस्व छूट के साथ मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था की पैरोकार सरकारों द्वारा राजकीय व्यय में कटौती के इरादों के रूप में मध्यवर्गीय लूट की योजनाओं के साथ दिन-प्रतिदिन ओर भी नजदीक आता जा रहा है।

1 टिप्पणी:

  1. बहुत अच्छा आर्टिकल .......शुक्रिया कामरेड .
    मजेदार बात यह है कि गरीब और विकास शील देशों को रौंदने और लूटने के लिए , दुनिया भर के बाजारों को खोल देने कि पैरवी करने वाले लगभग सारे यूरोपियन देश, बेशर्मी के साथ अपने यहाँ संरक्षणवाद को बढ़ावा देने कि बात कर रहे हैं . ......

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