महेश राठी
वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी और गृहमंत्री पी चिदंबरम की बेमन और बेमानी सुलह से कांग्रेस और संप्रग को सद्भावना एवं निश्चिंतता का आधार तो बेशक नहीं मिल पाया, लेकिन दोनों के बीच विवाद ने सरकार को सूचना अधिकार अधिनियम में बदलावों की जमीन तैयार करने का एक अवसर अवश्य दे दिया है। सूचना अधिकार कानून से संप्रग सरकार की बैचेनी केंद्रीय मंत्रियों, प्रधानमंत्री और कांग्रेस के प्रवक्ताओं की तरफ से लगातार आ रहे बयानो से साफ जाहिर हो रही है। संप्रग सरकार के सात सालों के कार्यकाल में यह पहली बार है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी सूचना अधिकार कानून में संभावित बदलावों को लेकर सहमत हैं और किसी निर्णय के मूड में भी। हालांकि सरकार ने सूचना अधिकार अधिनियम में किसी संशोधन से इनकार किया है। फिर भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में संप्रग-1 सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि रही है सशक्त सूचना अधिकार अधिनियम लागू करना। नागरिकों के पास सूचना का अधिकार होना सरकार की जवाबदेही और उसके कामकाज में पारदर्शिता को सुनिश्चित करता है। सूचना का अधिकार प्रशासनिक कार्यो में अनियमितताओं, भ्रष्टाचार को उजागर करने की मजबूत संस्कृति का वाहक भी है। सूचना का अधिकार केवल सार्वजनिक जीवन से जुडे़ आर्थिक, प्रशासनिक एवं संवैधानिक तथ्यों को उजागर करने भर का ही औजार नहीं है, बल्कि यह जनप्रतिनिधियों को मिले जनादेश के सही क्रियान्वयन को विनियमित करने की संवैधानिक संकल्पना भी है। भारतीय के संदर्भ में जवाबदेही व पारदर्शिता की यह संकल्पना 12 अक्टूबर 2005 को लागू सूचना अधिकार अधिनियम से ही परिभाषित हो रही है। अपने मौजूदा स्वरूप में यह कानून दुनिया में मौजूद सभी सूचना कानूनों से मजबूत और प्रभावशाली है। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में गृहमंत्री चिदंबरम और प्रधानमंत्री कार्यालय तक की भूमिका को विवादों में ले आने वाला वित्त मंत्रालय का पत्र इसी सूचना अधिकार अधिनियम के कारण सार्वजनिक हो सका। यह सूचना अधिकार कानून की मजबूती का सबसे बड़ा उदाहरण है कि इसकी शक्ति से देश का प्रधानमंत्री पद भी अछूता नहीं रहा और इस सूचना कानून की सबसे बड़ी चुनौती भी संभवतया यही है। आज देश का सर्वोच्च शक्तिशाली पद भी इस खामोश जनवादी क्रांति के माध्यम से अपने आपको असहज और नियमित प्रशासनिक कामकाज में हस्तक्षेप के रूप में महसूस कर रहा है। यही कारण है कि प्रधानमंत्री ने सूचना आयुक्तों के सम्मेलन में अपने उद्बोधन के दौरान इस कानून के कुछ प्रावधानों को रेखांकित करते हुए सूचना अधिकार अधिनियम के वर्तमान स्वरूप पर नए सिरे से बहस की जरूरत पर बल दिया है। वास्तव में इन परिवर्तनों में सूचना अधिकार अधिनियम को सशक्त करने से ज्यादा नौकरशाही और सर्वोच्च पदों पर असीन राजनेताओं को फजीहत से बचाने की चिंता साफ है। पुराने नौकरशाह होने के नाते प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सदैव यह धारणा रही है कि मजबूत और निर्बाध काम करने वाली नौकरशाही व्यवस्था ही देश को भलीभांति चला सकती है। यही कारण है कि प्रधानमंत्री हमेशा नौकरशाह व्यवस्था के बडे़ पैरोकार रहे हैं। सूचना अधिकार अधिनियम द्वारा नौकरशाहों के निर्णयों को सार्वजनिक करने पर कई बार चिंता जाहिर कर चुके प्रधानमंत्री की परेशानी चिदंबरम-प्रणब मुखर्जी विवाद ने निर्णायक रूप से बढ़ा दी है। दरअसल, प्रधानमंत्री चाहते हैं कि अंतर मंत्रालय पत्र व्यवहार और सर्वोच्च पदों पर असीन अधिकारियों द्वारा की जाने वाली नोटिंग्स को सूचना अधिकार अधिनियम के दायरे से बाहर कर दिया जाए। कमोबेश उनकी यही मानसिकता निजता बचाने के तर्क के पीछे भी है, जिससे वह उच्च पदासीन अधिकारियों और राजनेताओं से संबंधित व्यक्तिगत जानकारी को अनिवार्य से स्वेच्छिक कर देने का तर्क दे रहे हैं और यह काफी गहन चर्चा और चिंतन के बाद गढ़ा गया तर्क है। हाल में उनके कई मंत्रियों द्वारा स्वेच्छा से सार्वजनिक किया गया संपत्ति का ब्योरा भी इसी की एक कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए, लेकिन सवाल यह है कि इस प्रकार के बदलाव क्या इस कानून को मजबूत बना पाएंगे या तुलनात्मक रूप से मजबूत वर्तमान सूचना अधिकार कानून को एक लचर कानूनी औपचारिकता में बदलकर रख देंगे? दरअसल, सरकार द्वारा लगातार सूचना कानून पर नए सिरे से बहस की जरूरत पर बल देते रहना और रह-रहकर संशोधन की इच्छा को जाहिर करते रहना कांग्रेस और संप्रग की सूचना कानून से पैदा परेशानियों को ही रेखांकित करता है। अब सवाल यह है कि इस कानून में संशोधन क्या कानून को अधिक सशक्त और पारदर्शी बनाने के लिए है या इसकी धार को कुंद करने के लिए है? सरकार के अलावा मुख्य सूचना आयुक्त ने भी सूचना आयोग को वित्तीय मामलों में स्वायत्तता देने और आयोग को चुनाव आयोग की तरह का संवैधानिक दर्जा देने की मांग करके सूचना अधिकार कानून में बदलाव की मांग में एक नया कोण दे दिया है। सूचना आयुक्त की दिक्कत यह है कि उन्हें अपने सभी छोटे-बडे़ खर्चो के लिए सरकार पर आश्रित रहना पड़ता है और इसे सूचना आयोग को अपने कामकाज में वह स्वायत्तता हसिल नहीं हो पाती है, जो चुनाव आयोग सरीखे संवैधानिक दर्जा प्राप्त संस्थानों के पास है। इसके अलावा भी आरटीआइ कार्यकर्ता लगातार सूचना कानून में व्याप्त खामियों और उन्हें दूर करने के प्रावधानों की मांग करते रहे हैं। सूचना अधिकार अधिनियम में सूचना उपलब्ध कराने की समय-सीमा 30 दिन काफी ज्यादा है, वहीं ब्रिटिश स्वतंत्रता कानून में यह समय-सीमा महज 20 दिन ही है। चूंकि नौकरशाही की मंशा विभागीय सूचनाओं को किसी के साथ साझा नहीं करने की रहती है, इसीलिए 30 दिन में भी वह गलत जवाब देकर आवेदक को अपील की एक लंबी प्रक्रिया में उलझाने की कोशिश में रहते हैं। अपील और द्वितीय अपील की इस प्रक्रिया में कभी-कभी एक साल या उससे भी अधिक का समय लग जाता है। फिर जन सूचना अधिकारी के दोषी पाए जाने पर उस पर लगने वाला आर्थिक दंड भी काफी कम है, जिस कारण कई अधिकारी इस कोशिश में भी रहते हैं कि सूचना की अपेक्षा आर्थिक दंड ही दे दिया जाए। सामान्य नागरिक अक्सर इस लंबी प्रक्रिया से थककर सूचना प्राप्ति के अपने अभियान को बीच में ही छोड़ देते हैं। सूचना अधिकार अधिनियम को अधिक सशक्त बनाने के लिए सबसे जरूरी है कि सूचना उपलब्ध कराने की समय-सीमा को कम किया जाए। साथ ही अपील की प्रक्रिया को सरल और कम समय लेने वाला बनाते हुए दंड के प्रावधान को सख्त करते हुए सूचना अधिकारियों के लिए सूचना उपलब्ध कराने की बाध्यता भी निर्धारित की जाए। इसके अलावा सूचना आवेदक की सुरक्षा का सवाल और प्राप्त सूचना से सामने आने वाली अनियमितताओं और भ्रष्टाचार को दंडित करने की व्यवस्था का आभाव भी इस मजबूत कानून की धार को कमजोर करता है। सूचना अधिकार कानून लोकतंत्र को अधिक पारदर्शी और मजबूत बनाने में अहम भूमिका अदा कर सकता है। बशर्ते सूचना आयोग को संवैधानिक दर्जा देकर इसे स्वायत्त संस्था का रूप दिया जाए और कानून में ऐसे सुधार किए जाएं, जिससे प्रशासनिक निर्णयों की सूचना सुगमता से आम आदमी की पहुंच में हो सके। सूचना अधिकार कानून के माध्यम से सरकार के कामकाज में आने वाली पारदर्शिता को सरकार या उच्चाधिकारियों के काम में हस्तक्षेप नहीं, बल्कि मजबूत होते लोकतंत्र और लोकतंत्र की मजबूती में आम आदमी की भूमिका के रूप में देखा जाना चाहिए। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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