पृष्ठ

गुरुवार, 19 जनवरी 2012

आम भागीदारी का औजार बने चुनाव सुधार


महेश राठी
चुनाव पण्राली लोकतंत्र का केन्द्रीय तंत्र होती है इसीलिए इन राजनीतिक विसंगतियों के लिए वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था और विशेष तौर पर चुनाव पण्राली को जिम्मेदार माना जा रहा है। यही कारण है कि सामाजिक आंदोलनों से लेकर राजनीतिक दल और सरकार तक सभी आज चुनाव सुधारों की आवश्यकता पर गंभीर चिन्तन कर रहे हैं। हालांकि चर्चा के केन्द्र में ‘खारिज करने’ और ‘वापसी का अधिकार’ यानी ‘राइट टू रिजेक्ट’ और ‘राइट टू रीकॉल’ ही मुख्य रूप से हैं, परन्तु यह सवाल इन अधिकारों से कहीं आगे पूरी चुनाव पण्राली और उससे भी बढ़कर पूरी राजनीतिक व्यवस्था में संरचनागत बदलावों का है। एफपीटीपी अर्थात फस्र्ट पास्ट दि पोस्ट पद्धति पर आधारित यह चुनाव व्यवस्था हमारे प्रतिनिधिक लोकतंत्र का मूल आधार है। इस व्यवस्था से चुने हुए हमारे लोकतंत्र की विडम्बना यह है कि यह राजनीतिक दलों को अल्पमत से ही चुनाव को बहुमत की तरह पेश करती है। तीस प्रतिशत से भी कम मत प्राप्त करने वाले दल अक्सर अधिक सीटें जीतने के कारण राज्य और केन्द्र में सरकार बनाते हैं। यानी वोट आधारित दिखाई देने वाली यह व्यवस्था वास्तव में सीट आधारित व्यवस्था है। इसी कारण कम वोट लेकर भी अधिक सीट लेने वाले दल सत्ता की दावेदारी करते हैं, और सीट जीतने के लिए तमाम तरह के अलोकतान्त्रिक तरीकों को आधार बनाते हैं। अन्ततोगत्वा जनादेश की यह गलत परिभाषा सामाजिक विभाजन, धनबल और बाहुबल की राजनीतिक व्यवस्था तैयार करती है। यही कारण है कि 20वीं सदी के अन्तिम दशकों और 21 वीं सदी के पहले दशक में भारतीय राजनीति पर जाति और संम्प्रदाय के आधार पर समाज को बांटने वाली ताकतों और बाहुबलियों का प्रभुत्व बना रहा है। वर्तमान संसद में 150 ऐसे सांसद हैं जिन पर गंभीर किस्म के आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं और उनमें से आधे से अधिक ऐसे मामले हैं जिनमें पांच साल या उससे अधिक की सजा का प्रावधान है। ऐसे राजनीतिक संकट के दौर में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव पण्राली में सुधारों की बात होना स्वाभाविक भी है और आवश्यक भी। वास्तव में चुनाव पण्राली के तहत संरचनागत सुधारों की आवश्यकता के इस दौर में महज राइट टू रिजेक्ट या राइट टू री कॉल की बात करना लोकलुभावन तो है मगर अव्यावहारिक और खतरों से भरपूर लगता है। राजनीति की वर्तमान दशा के कारण ही आज देश के किसी भी गरीब ईमानदार आम आदमी के लिए राजनीति में भाग लेकर सफल होना किसी दिवास्वप्न से कम नहीं है। ऐसी स्थिति में राइट टू रिजेक्ट अर्थात मनपसन्द उम्मीदवार के न होने पर सबको खारिज करने का अधिकार वर्तमान चुनाव पण्राली के लिए बहुआयामी संकट का कारण कारण बन सकता है। निर्धारित सीमा से अधिक मतदान नहीं होने पर दोबारा चुनाव होना और बार-बार चुनाव होना एक लुभावनी लोकतांत्रिक व्यवस्था की कल्पना तो हो सकता है, परन्तु व्यावहारिक नहीं। एक तरफ यह व्यवस्था अल्पमत वोटों के आधार पर होने वाली सत्ता प्राप्ति की व्यवस्था को मजबूत राजनीतिक संगठनो द्वारा संस्थागत रूप में बदल सकती है तो दूसरी तरफ बार-बार चुनाव केवल उम्मीदवारों के लिए ही नही, सरकार के चुनाव खर्च को भी बढ़ाने वाला होगा जो आखिरकार अर्थव्यवस्था पर एक अतिरिक्त बोझ के अलावा कुछ नहीं कहलाएगा। इसके अतिरिक्त वर्तमान लोकतंत्र का सबसे त्रासद पहलू यह है कि निम्न आय और मध्यम आय वाला आम भारतीय इस चुनाव व्यवस्था में चुने जाने की प्रतिस्पर्धा से बाहर हो चुका है और खारिज करने के इस अधिकार के कारण एक ही निर्वाचन क्षेत्र में कई बार चुनाव होने का खतरा उसे पूरी तरह एवं निर्णायक रूप से इस चुनावी स्पर्धा से बाहर कर फेंक देगा और न केवल गरीब व्यक्ति वरन वह राजनीतिक दल भी, जो अपने कॉडर के दम पर बेहद कम संसाधनों के साथ चुनाव मैदान में उतरते हैं, के लिए भी इस अधिकार का चयन आत्महंता प्रयास ही होगा। कमोबेश यही स्थिति जन प्रतिनिधि को वापस बुलाने वाले राइट टू री कॉल की भी मानी जानी चाहिए। अपने प्रतिनिधि को वापस बुलाने के अधिकार का अहसास मतदाता को अपने अधिकारों में बढ़ोतरी के रोमानी अहसास से तो भरता है पर वर्तमान बाहुबल और धनबल के चंगुल में फंसी चुनाव व्यवस्था नई तरह की नकारात्मक संभावनाओं को भी जन्म दे सकती है। धनबल और बाहुबल के आधार पर सीट जीतने और बड़े व्यावसायिक घरानों द्वारा राजनीतिक दलों से सीटों की खरीद-फरोख्त के वर्तमान दौर में इस अधिकार के भी अपनी तरह के जोखिम हैं। विगत दिनों कर्नाटक में अवैध खनन में लिप्त एक व्यावसायिक घराने द्वारा पिछले राज्य विधान सभा चुनावों में जिस प्रकार मनपसन्द सीटों से अपने पसन्दीदा उम्मीदवारों को लेकर सौदेबाजी का मामला प्रकाश में आया, उसने भारतीय लोकतंत्र में धनबल और बाहुबल की नई स्थिति उजागर की है। लोकतंत्र के वर्तमान दौर में जब निगमीकृत विकास अपने हितों के अनुरूप लोकतांत्रिक संस्थाओ पर काबिज होना चाहता है, ऐसे में अपने हितों के अनुरूप लोगों के चुनने में धनबल का प्रयोग स्वाभाविक है। परन्तु जनप्रतिनिधि को वापस बुलाने के अधिकार के बाद स्वार्थी जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने के लिए धनबल और बाहुबल की राजनीति का नया दौर शुरू हो जाएगा। दरअसल यह राइट टू रिजेक्ट और राइट टू री कॉल से पहले लोकतंत्र और चुनाव पण्राली में आम आदमी के विास को बहाल करने और सबसे निचले पायदान पर खड़े आदमी की भागीदारी सुनिश्चित करने का बड़ा और गंभीर सवाल है। पिछली कई सरकारों ने चुनाव सुधारों के लिए कमेटियां और आयोग गठित किये परन्तु चुनाव सुधारों की दिशा में कोई सर्वमान्य हल अब तक नहीं पाया जा सका है ताकि लोकतंत्र का ऐसा चेहरा तैयार हो सके जो सामाजिक विभाजन और धनबल-बाहुबल की राजनीति से अलग आम आदमी की आकांक्षाओं की पूर्ति का लोकतंत्र बना सके। इसके लिए वर्तमान चुनाव पण्राली को व्यवहार में सीट आधारित से वोट आधारित बनाने की जरूरत है ताकि मतदाता मत का उपयोग बदलाव के एक मजबूत औजार की तरह कर सकें। आज भारत में आनुपातिक सरीखी ऐसी चुनाव पण्राली अपनाए जाने की जरूरत है जिसमें वोट बैंक बनाने के लिए साम्प्रदायिक व जातिवादी शक्तियों द्वारा जारी सामाजिक विभाजन पर अंकुश लग सके और मतदाता धनबल और बाहुबल से नहीं वरन राजनीतिक दलों की नीतियो से लामबद्ध होते हुए समाज में सबसे निचले पायदान पर खड़े अन्तिम व्यक्ति के लिए भी चुनने और वापस बुलाने के अधिकार से अधिक देश की सर्वोच्च पंचायत में बैठने की संभावनाओ के द्वार खुल सकें।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें