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बुधवार, 25 जनवरी 2012

क्योंकि हर वोट जरूरी होता है

महेश राठी 
मतदाताओं में उनके मत की आवश्यकता और मत के मूल्य के प्रति जागरूकता का प्रसार करने के लिए सरकार ने 25 जनवरी को राष्ट्रीय मतदाता दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया है। मतदाता और उसका मत ही दरअसल भारतीय लोकतंत्र या किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र का मूल आधार होता है। भारतीय लोकतंत्र में मतदाताओं की मतदान में कम होती रुचि उसकी लोकतंत्र में घटती आस्था को इंगित करती है। इससे देश के राजनेताओं का चिंतित होना स्वाभाविक है और आवश्यक भी। अब इसी चिंता के मद्देनजर भारत सरकार ने मतदाताओं में अपने मत के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए कई तरह के प्रयास करने की ठानी है, जिसका एक परिणाम राष्ट्रीय मतदाता दिवस के रूप में सामने आया है। 62वें संवैधानिक संशोधन द्वारा संविधान के अनुच्छेद 326 में संशोधन करके 1988 में मतदाता की न्यूनतम आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई थी। इससे अभी तक निर्वाचन प्रक्रिया से बाहर रही 18 से 21 वर्ष के बीच की एक बड़ी आबादी को मतदान में भाग लेने का मौका मिला। इसके साथ ही अब एक जनवरी को अपनी उम्र का 18वां साल पूरा करने वाली बड़ी तादाद को देश के साढ़े आठ लाख मतदान केंद्रों की मतदाता सूचियों में सम्मिलित करने की महती जिम्मेदारी निर्वाचन आयोग के जिम्मे आ गई है। निर्वाचन आयोग द्वारा इस बड़ी जिम्मेदारी के वहन के बावजूद एक बड़ी आबादी जो हर वर्ष एक जनवरी को अपनी उम्र का 18वां साल पूरा करता है वह मतदाता सूची में अपना नाम दर्ज कराने में असफल रह जाता है। इस महत्वपूर्ण समस्या से निपटने के लिए ही सरकार ने इस दिन को राष्ट्रीय मतदाता दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया है। यह मतदाता सूची में नामांकन के लिए गहन अभियान चलाने के साथ ही देश के मतदाताओं को अपने कर्तव्यों एवं अधिकारो के प्रति जागरूक बनाने का भी काम करेगा। 25 जनवरी को ऐसे ही युवा मतदाताओं को उनके मतदान केंद्रों पर मतदाता सूची में नामांकन करने के साथ ही उन्हें फोटो पहचान पत्र भी सौंपा जाएगा। यह प्रक्रिया असल में युवाओं को मतदान के प्रति जागरूक करने के अलावा उन्हें सशक्त और जवाबदेह नागरिक भी बनाएगा। यह सब लोकतंत्र को मजबूत बनाने की कवायद का ही एक हिस्सा है। हालांकि भारत सरकार का यह जागकरूकता अभियान अपने आप में एक उल्लेखनीय कदम है, परंतु मतदाता सूची में नामांकन की प्रक्रिया में और भी कई ऐसी कठिनाइयां है जिन पर चुनाव आयोग और सरकार को अधिक व्यावहारिक और प्रभावी निर्णय लेने की जरूरत है। शिक्षा का आभाव और सुदूर ग्रामीण और यहां तक कि शहरी गरीब बस्तियों में भी जन्म प्रमाण पत्र का न होना एक ऐसा बड़ा कारण है जिससे ग्रामीण और शहरी गरीबों, युवाओं और वयस्कों की बड़ी संख्या अक्सर मतदाता सूची में नामांकन से वंचित रह जाती है। चुनाव आयोग द्वारा जन्म प्रमाण पत्र के जो वैकल्पिक उपाय सुझाए जाते हैं वह भी किसी अशिक्षित गरीब परिवार की पहुंच से दूर होती है। अब इन विसंगतियों के कारण बड़ी गरीब आबादी मतदाता सूची में नामांकन के लिए और पहचान पत्र पाने के लिए नए दलालों के नेटवर्क का शिकार हो रही है। पिछले कुछ वर्षो में इस नेटवर्क में एक व्यापक विस्तार दिखाई दिया है। अब चुनाव आयोग के पास ऐसी शिकायतों के निपटारे के लिए कोई प्रभावी व्यवस्था नहीं है। संभवत: चुनाव आयोग यह सोचकर काम करता है कि आयोग में कोई अनियमितता अथवा भ्रष्टाचार हो ही नहीं सकता। इसी सोच का परिणाम है कि चुनाव आयोग आज एक बड़े अनियमितता और भ्रष्टाचार के विभाग के रूप में परिवर्तित होता जा रहा है। पिछले कुछ वर्षो में आईटी से जुडे हुए कामों को आउटसोर्स किया गया है। आयोग का तर्क है कि इस कारण कामों को निपटाने में जहां अत्यधिक तेजी आई है वहीं पारदर्शिता भी पहले की तुलना में अब ज्यादा है। आज के दौर में अनियमितताओं के मकड़जाल को रोकने और इसकी जांच करने का काम भी निर्वाचन आयोग को अपनी प्राथमिकता में शामिल करना चाहिए तभी इस जागरूकता अभियान को संपूर्ण सफलता मिलने की आशा की जा सकती है। इसके अलावा काम की तलाश में एक बड़ी घरेलू प्रवासी आबादी के मतदाता सूची में नामांकन की कोई सुचारू व्यवस्था न होने के कारण भी काफी बड़ी आबादी मतदाता बनने से वंचित रह जाती है। इसके अतिरिक्त मतदाता को अपने मत के मूल्य के प्रति जागरूक करने का काम भी एक बेहद महत्वपूर्ण काम है। इसके लिए सरकार एवं निर्वाचन आयोग को लगातार अभियान चलाने की आवश्यकता है। चुनावों के समय वोटों की खरीद-फरोख्त जहां आजकल एक सामान्य घटना है वहीं मतदाताओं को झूठे और लोकलुभावन नारों व वायदों की रिश्वत भी भारतीय लोकतंत्र की नई पहचान बनकर उभरी है। विगत दिनों जिस तरह के लुभावने लालच उत्तर प्रदेश और पंजाब में मतदाताओं और विशेषकर युवाओं के सामने रखे जा रहे हैं वह स्वस्थ लोकतंत्र के लिए एक भारी चुनौती है। दरअसल, मतदाताओं को लुभाने की यह परंपरा दक्षिण भारत खासकर तमिलनाडु से शुरू हुई थी। इसकी शुरुआत गरीबों को सस्ते या मुफ्त आनाज देने की घोषणा से शुरू हुई और अंततोगत्वा रंगीन टीवी और लैपटॉप बांटने तक पंहुच गई। यही चलन आजकल उत्तर भारतीय राजनीति का भी नया अंदाज बनकर उभर रहा है। कल तक कंप्यूटर और अंग्रेजी भाषा की घोर विरोधी समाजवादी पार्टी ने यू-टर्न लेते हुए अपने घोषणापत्र में युवाओं को लैपटॉप देने का भारी भरकम वादा कर डाला। वास्तव में गरीबों को अनाज और युवाओ को लैपटॉप देने पर किसी तरह का किसी को ऐतराज नही हो सकता है, परंतु सवाल अनाज और लैपटॉप देने के समय के चुनाव का है। यह राजनीतिक दल जब सत्ता में होते हैं तो उन्हें गरीबों और युवाओं की चिंता नहीं होती, लेकिन चुनाव पास आते ही यही राजनीतिक दल अनाज और लैपटॉप को मतदाताओं को घूस की तरह देने का इस्तेमाल करते हैं। राजनीति की यह दुर्भावना मतदाताओं के निष्पक्ष व्यवहार को प्रभावित करती है जो स्वस्थ लोकतंत्र के लिए एक गंभीर चुनौती है। जरूरत इस बात की है कि राष्ट्रीय मतदाता दिवस को केवल नए युवा मतदाताओं को मतदाता सूची में शामिल करने और उन्हे पहचान पत्र देने तक ही सीमित न रखा जाए, बल्कि इसे आगे ले जाते हुए मतदाताओं को निष्पक्ष मतदान हेतु जागरूक एवं प्रशिक्षित करने के लिए भी किया जाए। इसके अलावा मतदाताओं को वोट के वास्तविक मूल्य को समझाकर एक स्वस्थ लोकतंत्र का आधार तैयार किया जाए। असल में मतदाता दिवस की सफलता सही अर्थो में तभी होगी, जब मतदाता दिवस आम मतदाताओं को यह समझा सके कि उसका एक वोट केवल सरकार ही नहीं, बल्कि व्यवस्था बदलने का औजार भी बन सकता है और इसके जरिए खुद उस मतदाता का भाग्य भी बदल सकता है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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