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गुरुवार, 26 अप्रैल 2012

रॉक संगीत से फूटता इंकलाब और आतंकवाद विरोध का झरना




इंकलाब की शायरी यदि लोकप्रिय संगीत विद्या से होकर गुजरती है तो वह इंकलाब के नारों को भी एक उत्सव में बदल सकती है। आजकल भारत दौरे पर आए और पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में तेजी से लोकप्रिय हो रहे पाकिस्तान के लाल बैंड ने अभी तक एक दूसरे से विपरीत माने जा रहे रॉक संगीत से इंकलाबी शायरी को आवाज देता है तो लगता है मानो संगीत से इंकलाब का झरना फूट पड़ा हो। पाकिस्तान में प्रगतिशील वाम राजनीति के इस नए अंदाज ने दिखा दिया कि फैज अहमद फैज, हबीब जालिब और और फराज की शायरी संगीत की किसी खास विद्या, अलग दौर और मौके की मोहताज नहीं है, उसमें हर दौर और अंदाज में जोश, जुनून और ताजगी है। 

लाल बैंड अपने मार्गदर्शक, निर्देशक, गीतकार और गायक तैमूर रहमान के ख्याल की जिंदा अभिव्यक्ति है। यह एक व्यक्ति की संगीत के प्रति दीवानगी और प्रगतिशील वाम विचारधारा की पारिवारिक पृष्ठभूमि का बेजोड़ संगम भी है, जो पाकिस्तानी राजनीति में धीरे-धीरे अलग पहचान तो बना ही चुका है, पूरे भारतीय महाद्वीप में भी गहरा असर छोड़ रहा है। दरअसल संगीत के लिए दीवानगी तैमूर में बचपन से ही थी पर माक्र्सवाद की शास्त्रीय प्रस्थापनाओं के असर में आने पर उन्होंने संगीत को एक बुर्जुआ भटकाव कहकर लगभग डेढ़ दशक तक त्याग दिया था। उनकी दीवानगी और विचारधारा के प्रति आशावादी नजरिए ने आखिरकार अपना रंग दिखाया और 2007 में लाल बैंड का विचार आकार लेना शुरू किया। संगीत और इंकलाबी शायरी के संगम का यह जादू जस्टिस इफ्तिखार अहमद चौधरी की आजादी के लिए वकीलों के आंदोलन और देश में जनवाद की बहाली के संघर्ष के दौर में सिर चढ़कर बोला। एक गिटार, तबले व फैज और जालिब की शायरी के साथ पाकिस्तान के गांवों और गरीब बस्तियों में इंकलाबी तराने गाते रॉक संगीत में पारंगत तैमूर और उनके साथियों ने दिखा दिया कि संगीत में रंगा इंकलाब का जुनून क्या कारनामा कर सकता है। जबकि लोग कह रहे थे कि गांवों के गरीबों को न रॉक संगीत भाएगा, न ही ही खालिस उर्दू और फारसी की शायरी ही उनके पल्ले पड़ेगी। शुरुआत में वामपंथी आंदोलन के इस नए तेवर को पाकिस्तानी मीडिया ने नजरअंदाज किया लेकिन लाल बैंड पाकिस्तान में जम्हूरियत की बहाली की प्रमुख आवाज बनकर उभरा। 

पाकिस्तान में नई चुनी हुई सरकार के आने और जनवाद की पुनस्र्थापना के बाद राजनीतिक संकट का एक नया दौर शुरू हुआ। कट्टरपंथी ताकतों ने अमेरिका विरोध के नाम पर एकजुट होकर लोकतंत्र पर हमलों की शुरुआत की। अबकी बार उनके निशाने पर पाकिस्तान की जनवादी राजनीति के साथ भारतीय उपमहाद्वीप की वह पुरानी पंरपरा भी थी जो इंसानी मोहब्बत की पैरोकारी के कारण कट्टरपंथ की स्वाभाविक और सर्वाधिक दुश्मन भी है। हालांकि 2005 से अभी तक सूफी मजारों पर 70 से भी अधिक हमले हो चुके हैं लेकिन इनमें नई चुनी हुई पाकिस्तानी सरकार की स्थापना के बाद वृद्धि दिखाई दी है। वास्तव में अलकायदा और उससे जुड़े हुए संगठनों का सूफी परंपरा पर हमले पाकिस्तानी समाज में मतांधता की राजनीति को बढ़ावा देकर सत्ता हथियाने की दीर्घकालिक योजना का ही नतीजा था। कट्टरपंथी तबकों की इस साजिश का पाकिस्तान की आम राजनीति के अलावा वामपंथी और प्रगतिशील राजनीति भी शिकार हो गई। ऐसी जटिल राजनीतिक परिस्थितियों में लाल बैंड और कम्युनिस्ट मजदूर किसान पार्टी ऑफ पाकिस्तान ही थी जिसने तैमूर रहमान के नेतृत्व में आतंकवाद को ललकारते हुए कहा कि कल तक अमेरिकी डॉलरों पर पलने वाली सांप्रदायिक आतंकी राजनीति कैसे साम्राज्यवाद विरोधी हो सकती है। इस पर उन्हें आतंकवादियों से धमकियां भी मिल रही हैं। अब लाल बैंड की अगली मुहिम आतंकवाद को उसके घर में ललकारने और चुनौती देने की थी जिसके लिए उन्होंने गीत लिखे, गाए और रॉक संगीत की धुन पर झूमते हुए न सिर्फ आतंकवाद मुर्दाबाद कहने की हिम्मत दिखाई बल्कि अपने साथ गाती भीड़ को आतंकवाद मुर्दाबाद कहने के लिए विवश किया। 

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