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बुधवार, 23 मई 2012

समृद्धि के एक कॉरपोरेट सपने के अंत की आशंका

महेश राठी 
लगातार आर्थिक संकट झेल रहे ग्रीस में वरिष्ठ न्यायाधीश के नेतृत्व में अंतरिम सरकार के गठन के साथ 17 जून को दोबारा चुनाव होना निश्चित हो गया हैं। यदि चुनाव के बाद हुए नवीनतम सर्वेक्षणों को सही मानें तो इस यूरोपीय देश में अति वामपंथी सिरीजा के नेतृत्व में अबकी बार एक वामपंथी सरकार बनना भी लगभग तय है और साथ ही केंद्रीय यूरोपीय बैंक, यूरोपीय संघ की वर्तमान नीतियों के मुखर विरोधी वामपंथ के सत्तासीन होते ही ग्रीस के यूरोपीय संघ से बाहर होने की राह का खुल जाना भी लगभग तय है। 

एक यूरोप एक करेंसी द्वारा अमेरिकी वित्तीय वर्चस्व को चुनौती देते हुए सम्रग विकास, समृद्धि और सपनों का एक महादेश बनने का यूरोपीय सपना अब लगभग टूटने की राह पर है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था से प्रतिद्वंद्विता के आधार पर सबको अमीर और समृद्ध बनाने की यूरोपीय अभिजात्य, कॉरपोरेट घरानों और उदारवाद के अथक पैरवीकारों की निगमीकृत विकास योजना संभवतया अपनी अंतिम नियति या निर्णायक मुकाम की ओर बढ़ चली है। यूरोपीय विकास की इस अंतर्देशीयवादी और बहुसंस्कृतिवादी परिकल्पना की विडंबना देखिए कि इसको जहां एक तरफ जातीय और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से चुनौती मिल रही है तो वहीं आर्थिक राष्ट्रवाद भी एक यूरोप एक करेंसी के खगोलीय ख्याल के लिए बड़ा खतरा पेश कर रहा है। 

यूरोपीय संघ के सत्रह देशों में अधिकतर आज गंभीर वित्तीय संकट का सामना कर रहे हैं और इन्ही आर्थिक संकटों से उत्पन्न सामाजिक विषमताओं के कारण नव उदारवादी नीतियों को लागू करने वाले शासक सत्ताच्यूत हो रहे हैं। फ्रांस के राष्ट्रपति सरकोजी यूरोप के ऐसे नौवें राष्ट्रपति थे जिन्हें इन नीतियों के कारण सत्ता गंवानी पड़ी। यूरोपीय संघ के देशों में जारी आर्थिक नीतियों के विरोध की आक्रामकता इतनी अधिक है कि यह विरोध आंदोलन किसी क्रांति की पूर्व आहट सा जान पड़ते हैं। परंतु इतने व्यापक विरोधों के बावजूद भी इन आंदोलनों की विडंबना यह है कि इनके नेतृत्व की दावेदारी कोई एक राजनीतिक धारा नहीं कर सकती है। आर्थिक सवालों को लेकर यदि वामपंथी खेमा सक्रिय और आंदोलनरत है तो वहीं राष्ट्रवादी अस्मिता और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को दक्षिणपंथी ताकतें भी भरपूर हवा दे रही हैं। फ्रांस और ग्रीस में संपन्न हाल के चुनाव नतीजों में इस वाम दक्षिण समर्थन को देखा जा सकता है। एक तरफ जहां फ्रांस में नव उदारवादी नीतियों के मुखर आलोचक और संभवतया सबसे मौलिक विरोधी वाम और अतिवामपंथ को 11 प्रतिशत वोट हासिल हुए तो वहीं धुर दक्षिणपंथी मेरी ले पैन को भी इन चुनावों में खासी सफलता हासिल हुई। ग्रीस मेंं कम्युनिस्टों के वोट में सात प्रतिशत का इजाफा हुआ तो वहीं उस दक्षिणपंथी अति राष्ट्रवादी गोल्डन डाउन के भी मतों में सात प्रतिशत का इजाफा हुआ जो एक यूरोप विचार के खिलाफ कह रहा था कि सीमा रेखा पर बारूदी सुरंगें बिछा दी जानी चाहिए। हालांकि अति वामपंथी गठबंधन सिरीजा के मतों में सबसे अधिक 17 प्रतिशत के साथ आठ लाख का इजाफा हुआ। अपनी संप्रभुता और राष्ट्रीय पहचान छोड़कर सुख, समृद्धि और सुरक्षा पाने के एक यूरोपीय ख्वाब को यह दो विरोधी विचारधाराओं की एकजुट चुनौती है। 

एक यूरोप की अवधारणा आधारभूत रूप से अमेरिकी वित्तीय प्रभुत्व को चुनौती देने की कवायद के रूप में यूरोपीय अमीरों, कॉरपोरेट घरानों और नव उदारवाद की समर्थक राजनीति ने शुरू की। शुरुआत में मुफ्त अमेरिकी सुरक्षा तंत्र, आंतरिक यूरोपीय मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था, सस्ती ब्याज दर और उत्कृष्ट एवं ऊंची सामाजिक सुरक्षा से समृद्ध यूरोपीय समाज पूरी तरह एक यूरोप और एक करेंसी की अवधारणा पर अभिभूत था। धीरे-धीरे विकास की खगोलीय रोजगार नाशक परिकल्पना ने अपना प्रभाव दिखाना शुरू किया, बेरोजगारी ने अपने पांव पसारने शुरू किए। ग्रीस में बेरोजगारी की यह दर 51 प्रतिशत पहुंची तो वहीं स्पेन में 36 प्रतिशत, इटली और पुर्तगाल में 30 प्रतिशत, आयरलैंड और फ्रांस में 20 प्रतिशत से अधिक तो बाकी दूसरे यूरोपीय देशों में भी कमोबेश यही हाल था। समाज में बेरोजगारी फैलना शुरू हुई तो मुग्ध कर देने वाली समाजिक सुरक्षा राजकोषीय घाटे का सबब बनने लगी। 

दरअसल, यहीं से यूरोपीय समाज की मुश्किलों के दौर की शुरुआत हुई जब राजकोषीय घाटे से निपटने के लिए यूरोपीय संघ और यूरोपीय सेंट्रल बैंक ने आईएमएफ और विश्व बैंक के दिशा-निर्देशों के अनुसार यूरोपीय देशों पर कटौती प्रस्ताव थोपने शुरू कर दिए। यही भावना है जो यूरोप के हरेक देश में यूरोपीय संघ और उसकी पैरोकारी करने वाली राजनीति को न केवल चुनौती दे रही है, बल्कि उसकी करारी हार की पटकथा भी लिख चुकी है। 

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