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शुक्रवार, 15 जून 2012

इस सेवा का असामाजिक पहलू

महेश राठी 
यह भ्रष्टाचार, अनियमितता और समाज सेवा के नाम पर व्याभिचार के अड्डे चलाने समाज सेवी, राजनेता और नौकरशाह के गठजोड़ की ऐसी खौफनाक दास्तान है, जिसका बेहद भावुक और लुभावना नाम था अपना घर। अपना घर की वास्तविकता जैसे-जैसे दुनिया के सामने आ रही है वह रोंगटे खड़े करने वाली सिद्ध हो रही है। इस गैर सरकारी संगठन में जीवन संवारने और समाज सुधार के नाम पर प्रताड़ना और शारीरिक शोषण के जुल्म ढाए गए। इस मामले की विडंबना यह है कि यदि इस पूरे मामले में चंडीगढ़ उच्च न्यायालय ने दखल नहीं किया होता और साथ ही मीडिया ने इसे तत्परता से उठाया नहीं होता तो गैर सरकारी संगठनों की ऐसी न जाने कितनी अनियमितताएं और भ्रष्टाचार की अनकही कहानियों की तरह यह मामला भी कहीं किसी सरकारी फाइल में दब चुका होता और इस पूरे व्यभिचार की संचालिका जसवंती देवी के नाम की फिर किसी राजकीय सम्मान के लिए सिफारिश हो जाती। महिला सशक्तिकरण के नाम पर हरियाणा राज्य का इंदिरा गांधी शक्ति पुरस्कार पाने वाली जसवंती ने भारत विकास संघ नाम के गैर सरकारी संगठन की शुरुआत 1994 में की थी। महिला सशक्तिकरण के नाम पर चल रहे शारीरिक शोषण के इसअड्डे में जसवंती के साथ उसकी बेटी, दामाद और और भाई की भी भागीदारी थी यानी अधिकतर गैर सरकारी संगठनों की तरह यह भी जसवंती का पारिवारिक का व्यवसाय था। जसवंती देवी के इस अनैतिक व्यापार में राजनीतिक लोग, पुलिस प्रशासन की सहभागिता की साक्षी वह पूरी आबादी है जो उसके घर के आसपास रहती है और साथ ही अपने घर में आने-जाने वाले व्यक्तियों से भी जसवंती देवी के संपर्क सूत्रों को पहचाना जा सकता है। इन लोगों में स्थानीय पुलिस के अलावा विदेशी नागरिक और रोहतक के प्रभावी सत्ताधारी नेता शामिल थे तो बाल सुरक्षा और विकास विभाग के नौकरशाह भी इन आगंतुकों का हिस्सा थे। हरियाणा प्रशासन में जसवंती देवी की पकड़ का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि एक तरफ जहां राज्य सरकार ने उन्हे इंदिरा गांधी शक्ति पुरस्कार से सम्मानित किया तो वहीं दूसरी तरफ बाल देखभाल और सुरक्षा अधिनियम के तहत बने राज्य के जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड की भी वह सदस्य रही। दरअसल, यह पूरा मामला जसवंती द्वारा चलाए जा रहे इस व्यभिचार के अड्डे के अलावा गैर सरकारी संगठनों द्वारा स्थापित अनियमितता, भ्रष्टाचार की अराजक संस्कृति को रेखांकित करता है। वर्तमान दौर में समाज सेवा के नाम पर आसानी से धन संचय की यह एक ऐसी व्यवस्था है, जो न केवल जनांदोलन का विकल्प बन रही है, बल्कि अपने प्रभाव से प्रशासन में दखल बनाकर सरकारी संसाधनों का भी दुरुपयोग करने में पीछे नही हैं। अपना घर और सुपर्णा का आंगन जैसे एनजीओ की तथाकथित समाज सेवा सामने आने के बाद गैर सरकारी संगठनों की भूमिका पर चर्चा इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि भारत में गैर सरकारी संगठनों की संख्या संभवत: दुनिया में सबसे अधिक है और उनकी राजकीय निगरानी अथवा सामाजिक पड़ताल की कोई भी कारगर व्यवस्था अभी तक हमारे देश में नहीं है। यदि अभी तक के उपलब्ध आंकड़ों को ही लें तो वित्त वर्ष 2009-10 में ही देश में पंजीकृत गैर सरकारी संगठनों की संख्या लगभग 33 लाख थी। इतनी बड़ी संख्या के बावजूद देश में ऐसा कोई केंद्रीकृत विभाग नहीं है, जहां इन सभी संगठनों और इनकी गतिविधियों के बारे में जानकारी मिल सके। हालांकि यह बात अलग है कि देश में पंजीकृत कंपनियों की संख्या आठ लाख के आसपास है फिर भी उनकी देखभाल और निगरानी के लिए अलग से केंद्र सरकार की एक कंपनी मामलों का मंत्रालय है, जो इन पर निगाह रखती है और इनके कार्यकलापों का ब्यौरा भी। पिछले दस वर्षो में इन संगठनों की संख्या में बेहताशा बढ़ोतरी दर्ज की गई है। वर्ष 2006 में इन गैर सरकारी संगठनों की संख्या महज 7 लाख 32 हजार के लगभग ही थी और 2010 तक आते-आते यह संख्या 33 लााख की संख्या को भी पार कर चुकी है। यदि देश की आबादी और गांवों की संख्या की दृष्टि से इन गैर सरकारी संगठनो का विभाजन किया जाए तो प्रत्येक गांव के हिस्से पांच संगठन और हरेक 400 लोगों के समूह के हिस्से में औसतन एक संगठन आएगा। अगर उत्तराखंड को एक उदाहरण के रूप में देखें तो इस तथाकथित समाज सेवा की स्थिति बिल्कुल स्पष्ट हो जाएगी। उत्तराखंड में लगभग 17 हजार हजार गांव हैं और पंजीकृत गैर सरकारी संगठनों की 50 हजार से भी ज्यादा संख्या मौजूद है। इस तरह हर गांव के हिस्से में लगभग तीन संगठन आते हैं और इनमें से 90 प्रतिशत पर्यावरण सुरक्षा के काम में लगे हुए हैं। अब उत्तराखंड में पर्यावरण की बदहाली को देखकर इन गैर सरकारी संगठनों की भूमिका के दावों और जमीनी हकीकत को आसानी से समझा जा सकता है। आज के समय में गैर सरकारी संगठन एक उभरता हुआ और तेजी से फैलता वह नया कारोबार है, जिसमें आम आदमी के सवालों पर होने वाले जनांदोलनों को कमजोर करने का काम किया जाता है। इन संगठनों को मिलने वाले अनुदान की जानकारी की भी सरकार के पास कोई कारगर व्यवस्था नहीं है और जानकारी के नाम पर केवल विदेशों से मिलने वाला अनुदान ही ऐसा है जो सरकार की जानकारी में रहता है। हलांकि इस विदेशी अनुदान की रकम भी बहुत बड़ी है। वर्ष 2009-2010 के वित्त वर्ष में ही गैर सरकारी संगठनों को 10,337 करोड़ रुपये से भी अधिक का अनुदान प्राप्त हुआ था और घरेलू अनुदान की रकम इससे कई गुना अधिक है। अब इतने बड़े अनुदान को बगैर किसी जांच और निगरानी के छोड़ दिया जाएगा तो उसका स्वच्छंद और अराजक होना तय है जो इन दिनों गैर सरकारी संगठनों से जुड़ी गतिविधियों के माध्यम से लगातार सामने भी आ रही हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि इस क्षेत्र को नियमित करने के लिए सामाजिक सेवा के इस नए क्षेत्र को सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के दायरे में शामिल किया जाए। इसके अलावा इस क्षेत्र की व्यापकता को देखते हुए इसके लिए एक स्वतंत्र निगरानी व्यवस्था भी कायम की जाए और जिसकी अंतिम जवाबदेही केवल लोकपाल के प्रति हो। इसके अतिरिक्त यह भी समझना जरूरी है कि निगरानी व्यवस्था का अर्थ इस क्षेत्र को सरकार का बंधक बनाने की व्यवस्था बनाना नहीं होना चाहिए। अन्यथा इसके राजनीतिक दुरुपयोग के लगातार खतरे बने रहेंगे। यदि ऐसा होता है तो ही सही अर्थो में समाज सेवा के काम को अलग पहचान मिल पाएगी और ऐसे तमाम लोगों के पाप धुल सकेंगे। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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