महेश राठी
मासूम माही की मौत ने लगातार खुद रहे मौत के गड्ढों, प्रशासनिक अकर्मण्यता, पुलिस की मनमानी, कारगर आपदा प्रबंधन के अभाव के साथ-साथ भ्रष्टाचार में जकड़ी संवेदनहीन व्यवस्था पर सवाल खड़े किए हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में केंद्रीय भूजल बोर्ड ने बोरवेल की खुदाई पर रोक लगा रखी है, बावजूद इसके पेयजल और सिंचाई के पानी की समस्या से जूझ रहे हरियाणा राज्य के अंतर्गत आने वाले फरीदाबाद, गुडगांव और दिल्ली से सटे इलाकों में बेरोकटोक बोरवेल की खुदाई जारी है। वास्तव में पानी की किल्लत से जूझ रहे हरियाणा में ऐसे बोरवेल खोदने के लिए किसी प्रकार की अनुमति की आवश्यकता नहीं है। यदि माही की ही बात करें तो पोस्टमार्टम रिपोर्ट के मुताबिक उसकी मौत बोरवेल में गिरने के छह घंटे बाद ऑक्सीजन की कमी से हो चुकी थी। नन्ही माही की मौत के बाद उसके माता-पिता द्वारा पुलिस और प्रशासन पर लगाए गए आरोपों से स्थानीय प्रशासन की नीयत पर सवाल खड़े होते हैं। उदाहरण के तौर पर पुलिस का डेढ घंटे बाद आना और बोरवेल में फौरन ऑक्सीजन मुहैया न कराना, गंभीर संदेह पैदा करता है। इससे भी गंभीर यह आरोप है जिसमें माही के पिता ने कहा कि अगली सुबह जेसीबी मशीन चलाने के लिए उनसे डीजल के पैसे मांगे गए। वास्तव में यही व्यवस्था का असली चेहरा है जो पीडि़त व्यक्ति के साथ अक्सर एक ग्राहक की भांति व्यवहार करता है। यदि किसी की मासूम नाबालिग लड़की गुम हो जाए तो यह निश्चित है कि उसे खोजने के लिए आने वाला खर्च उसके माता-पिता को ही वहन करना होगा। इसके अलावा जेसीबी मशीन आउटसोर्स करना भी एक त्रासद स्थिति है जो सार्वजनिक क्षेत्र में फैलते निजीकरण के कुप्रभावों को दर्शाता है। एक तरफ एक गरीब आदमी अपनी मासूम बेटी की जान बचाने की गुहार कर रहा है तो दूसरी तरफ बच्ची को बचाने के लिए चलने वाली मशीन के लिए ईधन डीजल के भी पैसे मांगे जा रहे हैं। दरअसल जेसीबी मशीन चालक के लिए यह बहुत स्वाभाविक बात है, क्योंकि वह जानता है कि काम खत्म हो जाने के बाद उसे कोई भी पैसा नहीं देने वाला। यही कारण था कि वह पहले ही सुनिश्चित कर लेना चाहता था कि उसे पैसा कौन देगा, न कि बच्ची की जान कैसे बचेगी? पुलिस और प्रशासन पर आम लोगों का भरोसा कितना है यह इससे समझा जा सकता है। वहीं स्थानीय पुलिस के लिए भी यह एक अनुपयोगी और गैर जरूरी मुसीबत जैसा ही मामला था। बुधवार को बोरवेल में गिरी माही को बचाने के लिए सेना ने बोरवेल के बगल में शुक्रवार की शाम तक ही 80 फुट गहरे गड्ढे को खोद लिया था, परंतु उसके बाद सेना और देश के तमाम तकनीकी विशेषज्ञों की परीक्षा का असली समय था जो रविवार दोपहर बाद तक चलता रहा। दो दिन तक चली इस नाकाम कोशिश ने भारतीय सेना से लेकर स्थानीय प्रशासन और दिल्ली मेट्रो की तकनीकी कौशल तक को दांव पर लगा दिया। अंतिम समय में भारतीय सेना के जवानों का बाहर आ जाना या कहें कि हाथ खड़े करना और बाकी बचे काम को स्थानीय मेवाती कारीगरों के सुपुर्द कर देना या कभी दिल्ली मेट्रो रेल के विशेषज्ञों के हवाले कर देना भारतीय सेना में उपकरणों की कमी एवं तकनीक कौशल के अभाव की कहानी बयां कर रहे थे। वास्तव में फौज के जवानों ने अपनी ओर से भरपूर कोशिश की परंतु रास्ते में रुकावट बन रही चट्टान को हटाने की तकनीक और उपकरणों के अभाव ने उन्हें उनकी सीमा बता दी। हालांकि मानवीय श्रम की भी एक सीमा होती है इसलिए कोई चाहकर भी कुछ नहीं कर सकता था। बहरहाल एक मासूम की मौत ने कई ऐसे सवाल छोड़ दिए जो अगर समय रहते सुलझाए नहीं गए तो और न जाने कितनी मासूम माही इसी तरह असमय मौत का शिकार होती रहेंगी। क्या राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में केंद्रीय भूजल बोर्ड का बोरवेल की खुदाई का फरमान महज एक कागजी आदेश भर है या उस पर कभी अमल भी हो पाएगा और हरित क्रांति के नाम पर हरियाणा में अंधाधुंध और निरंतर जारी भूजल का दोहन कभी रुक पाएगा या फिर हरियाणा की राजनीतिक बिरादरी हरित क्रांति के इस अगुआ प्रदेश को रेगिस्थान में बदलने का इंतजार करती रहेगी। इसके अलावा एक बड़ा सवाल स्थानीय प्रशासन और पुलिस का है कि उनकी अंतिम जवाबदेही किसके प्रति है-आम आदमी अथवा अपने प्रशासनिक और राजनीतिक आकाओं के प्रति।
मासूम माही की मौत ने लगातार खुद रहे मौत के गड्ढों, प्रशासनिक अकर्मण्यता, पुलिस की मनमानी, कारगर आपदा प्रबंधन के अभाव के साथ-साथ भ्रष्टाचार में जकड़ी संवेदनहीन व्यवस्था पर सवाल खड़े किए हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में केंद्रीय भूजल बोर्ड ने बोरवेल की खुदाई पर रोक लगा रखी है, बावजूद इसके पेयजल और सिंचाई के पानी की समस्या से जूझ रहे हरियाणा राज्य के अंतर्गत आने वाले फरीदाबाद, गुडगांव और दिल्ली से सटे इलाकों में बेरोकटोक बोरवेल की खुदाई जारी है। वास्तव में पानी की किल्लत से जूझ रहे हरियाणा में ऐसे बोरवेल खोदने के लिए किसी प्रकार की अनुमति की आवश्यकता नहीं है। यदि माही की ही बात करें तो पोस्टमार्टम रिपोर्ट के मुताबिक उसकी मौत बोरवेल में गिरने के छह घंटे बाद ऑक्सीजन की कमी से हो चुकी थी। नन्ही माही की मौत के बाद उसके माता-पिता द्वारा पुलिस और प्रशासन पर लगाए गए आरोपों से स्थानीय प्रशासन की नीयत पर सवाल खड़े होते हैं। उदाहरण के तौर पर पुलिस का डेढ घंटे बाद आना और बोरवेल में फौरन ऑक्सीजन मुहैया न कराना, गंभीर संदेह पैदा करता है। इससे भी गंभीर यह आरोप है जिसमें माही के पिता ने कहा कि अगली सुबह जेसीबी मशीन चलाने के लिए उनसे डीजल के पैसे मांगे गए। वास्तव में यही व्यवस्था का असली चेहरा है जो पीडि़त व्यक्ति के साथ अक्सर एक ग्राहक की भांति व्यवहार करता है। यदि किसी की मासूम नाबालिग लड़की गुम हो जाए तो यह निश्चित है कि उसे खोजने के लिए आने वाला खर्च उसके माता-पिता को ही वहन करना होगा। इसके अलावा जेसीबी मशीन आउटसोर्स करना भी एक त्रासद स्थिति है जो सार्वजनिक क्षेत्र में फैलते निजीकरण के कुप्रभावों को दर्शाता है। एक तरफ एक गरीब आदमी अपनी मासूम बेटी की जान बचाने की गुहार कर रहा है तो दूसरी तरफ बच्ची को बचाने के लिए चलने वाली मशीन के लिए ईधन डीजल के भी पैसे मांगे जा रहे हैं। दरअसल जेसीबी मशीन चालक के लिए यह बहुत स्वाभाविक बात है, क्योंकि वह जानता है कि काम खत्म हो जाने के बाद उसे कोई भी पैसा नहीं देने वाला। यही कारण था कि वह पहले ही सुनिश्चित कर लेना चाहता था कि उसे पैसा कौन देगा, न कि बच्ची की जान कैसे बचेगी? पुलिस और प्रशासन पर आम लोगों का भरोसा कितना है यह इससे समझा जा सकता है। वहीं स्थानीय पुलिस के लिए भी यह एक अनुपयोगी और गैर जरूरी मुसीबत जैसा ही मामला था। बुधवार को बोरवेल में गिरी माही को बचाने के लिए सेना ने बोरवेल के बगल में शुक्रवार की शाम तक ही 80 फुट गहरे गड्ढे को खोद लिया था, परंतु उसके बाद सेना और देश के तमाम तकनीकी विशेषज्ञों की परीक्षा का असली समय था जो रविवार दोपहर बाद तक चलता रहा। दो दिन तक चली इस नाकाम कोशिश ने भारतीय सेना से लेकर स्थानीय प्रशासन और दिल्ली मेट्रो की तकनीकी कौशल तक को दांव पर लगा दिया। अंतिम समय में भारतीय सेना के जवानों का बाहर आ जाना या कहें कि हाथ खड़े करना और बाकी बचे काम को स्थानीय मेवाती कारीगरों के सुपुर्द कर देना या कभी दिल्ली मेट्रो रेल के विशेषज्ञों के हवाले कर देना भारतीय सेना में उपकरणों की कमी एवं तकनीक कौशल के अभाव की कहानी बयां कर रहे थे। वास्तव में फौज के जवानों ने अपनी ओर से भरपूर कोशिश की परंतु रास्ते में रुकावट बन रही चट्टान को हटाने की तकनीक और उपकरणों के अभाव ने उन्हें उनकी सीमा बता दी। हालांकि मानवीय श्रम की भी एक सीमा होती है इसलिए कोई चाहकर भी कुछ नहीं कर सकता था। बहरहाल एक मासूम की मौत ने कई ऐसे सवाल छोड़ दिए जो अगर समय रहते सुलझाए नहीं गए तो और न जाने कितनी मासूम माही इसी तरह असमय मौत का शिकार होती रहेंगी। क्या राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में केंद्रीय भूजल बोर्ड का बोरवेल की खुदाई का फरमान महज एक कागजी आदेश भर है या उस पर कभी अमल भी हो पाएगा और हरित क्रांति के नाम पर हरियाणा में अंधाधुंध और निरंतर जारी भूजल का दोहन कभी रुक पाएगा या फिर हरियाणा की राजनीतिक बिरादरी हरित क्रांति के इस अगुआ प्रदेश को रेगिस्थान में बदलने का इंतजार करती रहेगी। इसके अलावा एक बड़ा सवाल स्थानीय प्रशासन और पुलिस का है कि उनकी अंतिम जवाबदेही किसके प्रति है-आम आदमी अथवा अपने प्रशासनिक और राजनीतिक आकाओं के प्रति।
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