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बुधवार, 27 जून 2012

वामपंथी असंतोष के राजनीतिक वैचारिक द्वंद्व

महेश राठी
राष्ट्रपति चुनाव ने बेशक देश की राजनीति में कई तरह के नए परिवर्तनों और गठबंधनों की संभावनाओं को जन्म दिया है। सत्तासीन यूपीए से लेकर मुख्य विपक्षी एनडीए गठबंधन के बाद हमेशा एक मत दिखाई पडऩे वाले सबसे मजबूत वामपंथी गठबंधन द्वारा अलग-अलग राह पकडऩे के बाद जहां अभी भारतीय राजनीति के जानकार इस मतविभाजन का विश्लेषण कर ही रहे थे कि माकपा की रिसर्च विंग के युवा संयोजक के इस्तीफे ने एक दूसरी ही बहस को जन्म दे दिया है। प्रभात पटनायक के माकपा से दूर होते जाने और माकपाई राजनीति पर लगातर उनकी तीखी टिप्पणियों के बाद रिसर्च विंग के संयोजक द्वारा पार्टी की राजनीतिक दिशा पर गंभीर सवाल खड़े करते हुए बाहर हो जाने के राजनीतिक अर्थ हैं और इस असंतोष के निहितार्थ राष्ट्रपति चुनाव में बनते बिगड़ते समीकरणों से कहीं अधिक व्यापक हैं। 

राष्ट्रपति चुनावों में समर्थन और विरोध के वामपंथी दलों के अपने तर्क हो सकते हैं, परंतु वास्तविकता यह है कि दुनिया की तमाम वामपंथी पार्टियों की तरह भारतीय वामपंथ भी बदलते वर्तमान सामाजिक-आर्थिक परिवेश में एक संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। संक्रमण के इस दौर का एक टकराव जहां आर्थिक उत्पादक शक्तियों के विकास और परंपरागत माक्र्सवादी स्थापनाओं के बीच का है तो दूसरी तरफ माक्र्सवादी राजनीतिक प्रस्थापनाओं और उत्तर औद्योगिक काल की उत्तर आधुनिकतावादी विकासमान राजनीतिक अवधारणाओं के बीच बढ़ते संघर्ष का है। बेशक भाकपा अपने पार्टी महाधिवेशन के निर्णयों का हवाला देकर और कथनी-करनी के बीच के फर्क को पाटते हुए नई आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ाने वाली यूपीए सरकार और इन नीतियों के पैरोकार वित्तमंत्री की उम्मीदवारी का विरोध कर रही है तो वहीं माकपा के पास भी समर्थन के कुछ तर्क हैं, परंतु राष्ट्रपति उम्मीदवार की इस बहस में उन सवालों को दबाया नहीं जा सकता है जिनसे भारतीय वामपंथ आज संघर्षरत है। वास्तव में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति से अचानक माकपा महासचिव प्रकाश करात के करीबी हो जाने वाले रिसर्च विंग के संयोजक के एक पत्र ने माकपा के भीतर चल रहे विरोधाभासी संघर्षों को अचानक सतह पर ला दिया है। ऐसा नहीं कि यह अंतर्विरोध और आंतरिक संघर्ष माक्र्सवादी दलों के लिए कोई नई बात या अनोखी घटना है, लेकिन परंपराओं से हटकर इस संघर्ष को एक नौजवान नेता द्वारा सार्वजनिक कर दिए जाने ने इसे बेशक अनोखी घटना बना दिया है। असल में यह घटना भी इस पूरे प्रकरण को हवा देने वाले नौजवान के विरोधाभासी चरित्र को ही उजागर करती है एक तरफ तो अपने पत्र और उसमें अभिव्यक्त चिंताओ में यह नौजवान बेहद शास्त्रीय किस्म का माक्र्सवादी जान पड़ता और दूसरी तरफ अपने पक्ष को रखने के लिए उत्तर आधुनिकतावाद के एक प्रभावी औजार सोशल मीडिया का सहारा लेता है। 

भारतीय संदर्भों में माकपा का यह अंतद्र्वंद्व तीन भागों में बंटा दिखाई देता है, एक केरल का शास्त्रीय माक्र्सवाद जिसके वाहक अभी तक प्रकाश करात और उनके खेमे वाले सहयोगी माने जाते थे और जो माक्र्सवादी लेनिनवादी स्थापित मान्यताओं का धर्म की तरह अक्षरश: पालन करना चाहते थे। दूसरा पक्ष बुद्धदेव भट्टाचार्य और उनके जैसे आर्थिक विकास के हामियों का है जो साठ सत्तर के दशक में चीन का समर्थक रहने के बाद आज के चीनी विकास मॉडल को भी हूबहू अपनाना चाहता हैं और उसके लिए उन्हें चाहे नवउदारवाद को कोसते हुए अचानक नवउदारवादी नीतियों की ओर ही क्यों न यू टर्न लेना पड़े। इसके अलावा तीसरा और सांगठनिक रूप से संभवतया सबसे कमजोर परंतु सामाजिक रूप से प्रभावोत्पादक हिस्सा प्रभात पटनायक सरीखे बुद्धिजीवियों का है, जिन्होंने जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय जैसे बेहद जनवादी परिवेश को आत्मसात कर लिया है, जहां विश्वविद्यालय के चुनावों से लेकर किसी भी अहम प्रशासनिक निर्णय में अध्यापकों और छात्रों की महत्वपूर्ण भागीदारी होती है। 

जेएनयू से बाहर के छात्र समुदाय के लिए संभवतया यह कोरी कल्पना ही होगी कि उसके छात्र संघ के चुनावों का संचालन करने वाला चुनाव आयोग भी मतदाता छात्रों की भागीदारी से ही तैयार होता है, परंतु जेएनयू के लिए यह स्वाभाविक और उनकी अपनी जीवनशैली है। यह किसी भी जनवादी समाज के लिए आदर्श स्थिति हो सकती है कि मतदाता स्वयं निष्पक्ष चुनावों का संचालन करें। अब ऐसे परिवेश में रहने वाले किसी बुद्धिजीवी का अपनी ही पार्टी के कॉडर के व्यवहार से केरल जैसे राज्य में साक्षात्कार हो तो उसका उन्हें स्टालिनवादी सामंत कहना कोई अस्वाभाविक घटना नहीं है। 

दरअसल, दुनिया के कम्युनिस्ट आंदोलन का द्वंद्व उसके विकास के एक बिंदू पर आकर ठहर जाने के कारण है जिसका संभवतया सबसे सटीकउदाहरण भी पश्चिम बंगाल की तीन दशक की वामपंथी सत्ता ही बेहतर हो सकती है। वामपंथ ने भूमि सुधार जैसा क्रांतिकारी काम तो बंगाल में किया परंतु इस भूमि आधारित विकास से आगे की मंजिल की ओर जाने की राजनीतिक दूरदर्शिता संभवतया भारतीय वामपंथ के पास नहीं थी। सामंती आर्थिक ढांचा तोडऩे की समझदारी और मजबूत इच्छाशक्ति तो इस वामपंथ के पास थी, मगर सामंतवाद की उस लाश पर नया आर्थिक ढांचा खड़ा करने का नजरिया इस वामपंथ के पास नहीं था। उसने पंूजीवादी विकास के समानांतर अपने विकास के विकल्प खड़ा करने की दौड़ छोड़कर टूटे हुए सामंती आर्थिक ढांचे पर सामंती राजनीतिक सामाजिक अवशेषों के साथ ही राज करना सीख लिया। यही ठहराव का वह बिंदू था जिससे निकलने के सबके अपने अलग सिद्धांत बनने लगे और नए सिद्धांतकार खड़े होने लगे, जिसमें शास्त्रीय माक्र्सवादी बनने की होड़ वाले भी हैं तो उत्पादक शक्तियों के विकास के नाम पर नवउदारवाद की राह पर दौडऩे की चाह भी और जनवादी परिवेश में पले-बढ़े प्रगतिशील जनवादी भी। परंतु आवश्यकता इस बात की है कि भारतीय वामपंथ को जनमानस की आकांक्षाओं को समझते हुए उसका स्वर, उसके जीवन का स्वाभाविक अंग बनना होगा। 

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