महेश राठी
भ्रष्टाचार पर लड़ाई के कई पहलू और रंग पिछले कुछ समय से देश में दिखाई दे रहे हैं। यूं तो भ्रष्टाचार का देश-दुनिया में लम्बा इतिहास है परन्तु भारतीय संदर्भ में भ्रष्टाचार की वर्तमान स्थिति में विकास के नव उदारवादी विचार के आगमन के साथ एक अनोखा और तेज उछाल दिखाई देना चिंतनीय परिदृश्य है। संयुक्त राष्ट्र के भ्रष्टाचार विरोधी कंवेंशन में भारत में 2000 और 2008 के बीच भ्रष्टाचार में तेजी से हुई बढ़ोतरी को रेखांकित करना भी कमोबेश इसी विकास की उदारवादी और भूमंडलीय अवधारण से जुड़ता है। देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ इस मुहिम का निशाना प्रमुखत: राजनीतिक भ्रष्टाचार ही बन रहा है परन्तु भ्रष्टाचार पर रोक की इस मुहिम में गैर सरकारी संगठनों की अनियमितताएं और उनमें पनपता भ्रष्टाचार लगातार नजर अंदाज किया जा रहा है। जबकि यह एक कटु सचाई है कि समाज सेवा का यह कारोबार आज के हालात में सेवा अथवा परमार्थ से अधिक आय की आसान राह के रूप में प्रचलित हो रहा है। कुछ समय पहले विकलांग महिलाओं को वस्त्रहीन घुमाने, ओडिशा के गंजाम जिले में बच्चों की तस्करी का खुलासा, अपना घर और सूपर्णा का आंगन के घृणित कृत्य या बाबाओं के उजागर होते सेक्स स्कैंडल कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो समाज सेवा के कारोबार के कारनामों को अनियमितताओं और भ्रष्टाचार से भी कहीं आगे जघन्य अपराध की सीमाओं तक ले जाते हैं। बावजूद इन सब घटनाओं के गैर-सरकारी संगठनों की गतिविधियों और कारनामों को सार्वजनिक करने या निगरानी करने के सवाल पर चारों ओर एक गहरी खामोशी व्याप्त है। भारत संभवत: दुनिया में सबसे अधिक गैर-सरकारी संगठनों वाला देश है जिसके प्रत्येक गांव के हिस्से में पांच पंजीकृत गैर-सरकारी संगठन आते हैं और प्रत्येक 400 व्यक्तियों पर एक गैर-सरकारी संगठन है। मजे की बात यह है कि यह आंकड़ा पंजीकृत गैर-सरकारी संगठनों का है। गैर पंजीकृत सामाजिक, राजनीतिक और परंपरागत धार्मिक संगठन इससे अलग हैं। इसके अलावा यह आंकड़े 2010 तक के पंजीकृत गैर-सरकारी संगठनो के हैं जिनकी संख्या 2010 में 33 लाख थी। और जिस तेजी से 2000 के बाद इनकी संख्या में उछाल आया है, यदि उससे वर्तमान संख्या का अनुमान किया जाए तो निश्चित ही यह संख्या 37 लाख या उससे अधिक होगी। अब इतनी बड़ी संख्या के बावजूद गैर-सरकारी संगठनों की निगरानी की कोई व्यवस्था नहीं होना और समाज सेवा के इस काम से संबधित जानकारी रखने के लिए किसी केन्द्रीकृत विभाग का नहीं होना शर्तिया अराजकता की ही स्थिति है। यदि हम इन गैर-सरकारी संगठनों की कार्यपण्राली और उद्देश्यों का विश्लेषण करने के लिए केवल उत्तराखंड को ही एक उदाहरण मानें तो शायद समाज में परिवर्तन के नारे देने वाले गैर सरकारी संगठनों की प्रतिबद्धताओं का खुलासा हो जाएगा। उत्तराखंड में गांवों की संख्या लगभग सत्रह हजार के आसपास है और उसमें सीमा से सटे ढेरों ऐसे गांव हैं, जिनमें रहने वाले लोगों की संख्या मात्र 50 से लेकर 250 तक ही रह गई है। इन सत्रह हजार गांवों वाले राज्य में गैर-सरकारी संगठनो की संख्या 50 हजार से भी अधिक है अर्थात प्रत्येक गांव के हिस्से में लगभग तीन गैर-सरकारी संगठन हैं। देव भूमि कहलाने वाले इस पहाड़ी राज्य में गैर-पंजीकृत धार्मिक और समाजिक संगठनों की संख्या भी काफी बड़ी है और पंजीकृत गैर-सरकारी संगठनों में अधिकतर पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करने वाले हैं। परन्तु विडम्बना यह है कि कुकुरमुत्तों की तरह उगते तथाकथित पर्यावरण रक्षक गैर सरकारी संगठन जितनी ज्यादा संख्या में अस्तित्व में आते जाते हैं, राज्य में पर्यावरण तबाही की दास्तान उतनी ही भयावह और लम्बी होती जाती है। पर्यावरण तबाही की मार झेल रहा उत्तराखंड आज प्राकृतिक आपदाओं के रूप में जहां भूकंप, भूस्खलन और बादल फटने की घटनाओं से हलकान है और पिघलते ग्लेश्यिरों के कारण भूख, गरीबी और पेयजल जैसी समस्याओं से त्रस्त है, वहीं दूसरी तरफ समाज सेवा और पर्यावरण संरक्षण के नाम पर गैर-संरकारी संगठनों की लूट का कारोबार तेजी से तरक्की पर है। वास्तव उदारीकरण के साथ इस सामाजिक सेवा क्षेत्र का अटूट संबंध है। नई आर्थिक नीतियों से बनती और फैलती विषमताओं एवं असंतोष के बावजूद पिछले तीन दशक से भी अधिक समय से किसी बड़े जनांदोलन के नहीं बनने में ही इन गैर-सरकारी संगठनों के बनने और फैलने का रहस्य छुपा है। आर्थिक विकास की खगोलीय अवधारणा के पैरोकारों ने जनवादी जनांदोलनों के विकल्प के तौर पर ही गैर-सरकारी संगठनों के समाजिक सेवा क्षेत्र को जन्म दिया है अन्यथा निगमीकृत विकास की विषमताओं के खिलाफ आवाज उठाने के लिए बड़े निगमों द्वारा गैर- सरकारी संगठनों को दान दिए जाने का कोई तर्क हो ही नहीं सकता। क्योंकि यह गैर-सरकारी संगठन ही हैं जो सड़क पर जिंदगी बसर करते लोगों के बेघर होने के कारण के सवाल को बेघरों के लिए टेंट और चादर जुटाने के सवाल में बदल देते हैं। यही तथाकथित समाजिक सेवा क्षेत्र भूख के मौलिक सवाल को राज्य प्रायोजित रसोई चलाने में बदलता है और असंगठित क्षेत्र में न्यूनतम मजदूरी के बुनियादी कानूनी अधिकार का सवाल भी इन्हीं गैर-सरकारी संगठनों की बदौलत सरकार द्वारा दिये जाने वाले बीमे या लाक्षणिक पेंशन में बदलकर जनांदोलनों की धार को कुंद करता है। बदनीयती के साथ पैदा और बड़े हुए गैर-सरकारी संगठनों के इस कारोबार का वर्तमान स्थिति में पंहुचना स्वाभाविक था परन्तु उससे भी खतरनाक यह है कि स्वयंभू सिविल सोसायटी राजनीतिक भ्रष्टाचार पर तो मुखर दिखती है परन्तु सामाजिक सेवा क्षेत्र और कॉरपोरेट की अनियमितताओं के सवाल पर बचकर निकल जाना चाहती है या खामोश है। बहरहाल यदि बिल्कुल हाशिए पर चली गई इस कारोबार की सकारात्मक और नेकनीयत मंशा बचाए रखनी है तो इसके लिए एक कारगर निगरानी व्यवस्था का निर्माण करना ही होगा और इसे भी आरटीआई कानून के तहत लाना होगा ताकि इस कारोबार की सामाजिक जवाबदेही निर्धारित की जा सके। इसके लिए गैर-सरकारी संगठनों में सक्रिय ईमानदार और अब तक अपने उद्देश्यों के लिए प्रतिबद्ध लोगों को आगे आते हुए स्वयं अपने काम के सोशल ऑडिट की पेशकश करते हुए सामाजिक सेवा क्षेत्र में पारदर्शिता स्थापित करने का बीड़ा उठाना होगा।
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सोमवार, 13 अगस्त 2012
सिकुड़ती प्रतिबद्धता फैलता लालच
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यह सत्य है और इसके लिए जागरूक होना और लोगो कोजग्रूक करना पड़ेगा
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