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गुरुवार, 8 अगस्त 2013

जेनयू: वैचारिक भटकाव का परिणाम

जेनयू के सांस्कृतिक परिवेश पर एक नई तरह की बहस चल रही है ! आज मेरे एक मित्र जेनयू से आये तो वहां माहौल दुरूस्त करने के लिए की जा रही सख्ती की चर्चा कर रहे थे ! लोगो को अथवा उनके वाहनों को भीतर नहीं जाने देने पर विश्विधालय की तत्परता और सख्ती पर उन्होंने विस्तार से बातचीत की ! परन्तु जेनयू का वर्तमान परिवेश क्या बहारी लोगों की देन है अथवा यह वहां के छात्रो के दिमाग में पिछले कुछ सालों से विकसित हुए वैचारिक भटकाव का परिणाम है !
जेनयू अपनी प्रगतिशील वामपंथी विरासत के लिए जाना जाता है और यदि उसकी पहचान उसके वामपंथी परिवेश के कारण है तो उसके भटकाव की पड़ताल भी उसी विचारधारा के इर्द गिर्द करनी होगी ! मै  अस्सी के अंत और नब्बे के दशक में जेनयू गया था उस दौर में जहां दिल्ली विश्वविधालय एबीवीपी और एनएसयूंआई का ठिकाना थे परन्तु जेनयू में  एबीवीपी से जुड़ाव एक शर्मिंदगी का प्रतीक माना जाता था !  एबीवीपी से जुड़े छात्र इक्का दुक्के थे या वह अन्य झंडे बैनरों के नीचे काम करते थे ! परन्तु आज हालात बदल चुके है अब  एबीवीपी विश्वविधालय की एक मजबूत ताकत है ! अब सवाल यह है कि  ऐसा क्या बदलाव आया है कि   एबीवीपी के लिए जेनयू भी संभावनाओं की जमीन बन गयी है ! दरअसल पिछले कुछ सालों में जेनयू वामपंथ के अतिवादी और दुस्साहसिक रूझानों का शिकार हो गया है ! विश्वविधालय पर वामपंथ का वह रूप तारी है जिसने पूरी दुनिया में वामपंथ का किसी अन्य राजनीति से अधिक नुकसान  किया है ! 
वामपंथ की यह धारा  पूरी दुनिया का विश्लेषण सिर्फ स्याह और सफ़ेद के रूप में करती है और इस वामपंथ की समस्या यह है की यह खुद को छोड़कर किसी दुसरे को क्रांतिकारी समझना ही नहीं चाहती है ! जनवादी और धर्मनिरपेक्ष ताकतों को तो छोडिये वामपंथियों के विरोधी तर्क के लिए भी इस आतिवादी राजनीति में कोई स्थान नहीं होता है ! यही आतिवाद इन्हें अन्तोगत्वा दक्षिणपंथ के करीब ले जाता है और दक्षिणपंथ के लिए भी जीने की गुंजाइश पैदा करता है ! 
असल में इस भटकाव की जमीन मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की गलत व्याख्या से आती है, जिसे माओ ने अंजाम दिया था और जिसमे माओ कहते हैं कि एकता और संघर्ष द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का नियम नहीं केवल विरोधाभास है और जिसके आधार पर सर्वहारा कि  राजनीति पूरे दुसरे वर्गों को वर्ग शत्रु समझकर उन्हें ख़त्म करने का आह्वान करती है ! इस सोच का ब्रह्म वाक्य ही है कि  बीच का कोई रास्ता नहीं होता है ! इस विचारधारा और बुशवाद में इस मायने में काफी करीबी है कि हरेक न कहने वाला इनका घोषित शत्रु है ! इसी वैचारिक आधार पर यह समाज के बेहद जटिल और जरूरी सवालों पर भी जनवादी धर्मनिरपेक्ष ताकतों के सहयोग और उसकी संभावनाओं को नकार देती है और जनवादी और धर्मनिरपेक्ष शक्तियाँ भी इनके आतिवाद का शिकार होकर अन्ततोगत्वा दक्षिणपंथी कतारों के करीब दिखाई देती हैं ! यह स्थिति आखिरकार दक्षिणपंथी राजनीति को सहारा देती है ! जिसका उदाहरण हम ९० के बाद जेनयू में अतिवाम के साथ साथ एबीवीपी के मजबूत होने रूप में देख सकते हैं! 
यही अति वामपंथी मानस ही जेनयू की राजनीति के साथ ही साथ उसके समाजिक और सांस्कृतिक परिवेश में से ना कहने की संभावना को सीमित कर रहा है ! यही अति वामपंथ और उसका संकीर्णतावाद था जिसने इंडोनेशिया में राष्ट्रवादी जनवादी ताकतों के साथ लड़कर ५ लाख से अधिक कम्युनिस्टों के क़त्ल की पटकथा लिखी और स्वयं भारत में भी वाम आन्दोलन की टूट की जमीन तैयार करने के लिए भी यही भाववादी मार्क्सवादी जिम्मेदार हैं ! जिनके खुद बाद में कई टुकड़े हो गए और उनमे से जो सबसे भाववादी बचे वह अभी जेनयू की बहुरंगी और जनवादी संस्कृति को एकरूपता के नए लाल रंग से पॉट रहे हैं! अन्यथा याद कीजिये ९० या उसके पहले का वह जमाना जब मुख्यधारा के वामपंथी छात्र संगठन इस परिवेश में हावी थे तो क्या दक्षिणपंथ के लिए इतनी गुंजाइश थी अथवा ना कहने पर व्यक्तिगत संबंधो में हिंसा का इस तरह का तांडव था ! दरअसल यह मैखिक और शाब्दिक हिंसा का विस्तार ही है जो लम्बे मानसिक जड़ता प्रशिक्षण के बाद शरीरिक हिंसा में परिवर्तित हो रहा है ! वामपंथ के इस अतिवादी दक्षिण हिस्से को अभी भी संभालना होगा वापिस मार्क्सवाद की और लौटकर अपने भटकाव की पड़ताल और समीक्षा करनी होगी, सुधारना होगा ! नतीजो का विश्लेषण करें विश्वविधालय की जनवादी और बहुरंगी दुनिया को अपनी रोमानियत की भेंट चढ़ाकर अपना भाववादी स्याह सफ़ेद संसार नहीं बनाये !  

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