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शनिवार, 30 नवंबर 2013

नयी चुनौती "प्रति-सांप्रदायिकता"

महेश राठी 
पांच दशक से भी अधिक लंबे इतिहास के साथ भारतीय जनतंत्र अपने विकास के नये पड़ाव, नयी मंजिलें छू रहा है, तो इस विकास के कई सकारात्मक और नकारात्मक पहलू भी समाजिक-राजनीतिक चुनौतियों के रूप में दुनिया के सामने उजागर हो रहे हैं. भारत के संसदीय लोकतंत्र का आधार जहां इसकी चुनाव प्रणाली है, तो वहीं यह वर्तमान चुनाव प्रणाली दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के सामने विषम और बेहद जटिल चुनौतियां भी पेश कर रही है. वर्तमान चुनाव प्रणाली से उपजी इन चुनौतियों में नयी और सर्वाधिक ज्वलंत अवधारणा सांप्रदायिकता और प्रति सांप्रदायिकता और उसके प्रति राजनीतिक दलों की बढ़ती आसक्ति है. गौरतलब है कि इस प्रति-सांप्रदायिकता ने सबसे ज्यादा देश के अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों का नुकसान किया है. सांप्रदायिकता और उसके प्रत्युतर में प्रति सांप्रदायिकता बेशक वोटों के ध्रुवीकरण के लिए कुछ राजनीतिक दलों का पसंदीदा हथियार बन रहा हो, परंतु वास्तविकता यह है कि यह ना केवल देश की गंगा-जमुनी तहजीब वाले सामाजिक ताने-बाने को छित्र-भित्र कर रहा है, बल्कि यह भविष्य में भारत की एकता अखंडता के लिए भी खतरे की दस्तक हो सकती है.

वास्तव में चुनाव जीतने के लिए वोटों के ध्रुवीकरण की आवश्यकता ने कई राजनीतिक रुझानों और व्यवहार को बदला है. जिसमें वोटों के लिए एक संप्रदाय विशेष में उन्माद द्वारा संप्रदायिक लामबंदी के रूप में वोटों का ध्रुवीकरण शामिल है. हालांकि वर्तमान दौर में इसमें एक गुणात्मक परिवर्तन आया है कि पहले विभाजन की यह राजनीति बहुसंख्यक समुदाय को केंद्र में रख कर धर्मांध संगठनों द्वारा की जाती थी और इसके प्रत्युतर में धर्मनिरपेक्ष शक्तियां शुरू में जहां इसका विरोध करती रही थीं, तो बाद में चल कर अल्पसंख्यक वोटों के ध्रुवीकरण के मद्देनजर धर्मनिरपेक्ष खेमे के कुछ हिस्से भी एक प्रकार की निष्क्रिय सांप्रदायिकता की राजनीति में शामिल होते चले गये. परंतु अब स्थिति इससे भी अगली अवस्था में पहुंच चुकी है. इस दौर में सांप्रदायिक और धर्मनिरपेक्ष दोनों खेमों से बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक वोटों की लामबंदी के लिए सांप्रदायिकता का कार्ड सक्रियता से खेले जाने का नया रुझान पैदा हुआ है. हाल ही में उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर का सांप्रदायिक दंगा इसका सटीक और ताजातरीन उदाहरण है. मुजफ्फरनगर दंगे में शामिल और पीडि़त दोनों समुदाय बगैर किसी हिचकिचाहट के इस तथ्य को स्वीकारते हैं कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सांप्रदायिक विभाजन के इस मसले में देश के स्थापित सांप्रदयिक राजनीतिक संगठनों और राज्य की सत्ताधारी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष सरकार की बराबर भूमिका है. मुजफ्फरनगर दंगाग्रस्त क्षेत्र का दौरा करनेवाले तमाम संगठनों और निष्पक्ष समूहों ने दंगे में दोनों की भूमिका को सांगठनिक रूप से और अन्य तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों के क्षेत्रीय नेताओं की व्यक्तिगत भूमिका को स्पष्ट रूप से रेखांकित करते हुए इससे संबंधित कई रिपोर्टें पेश की हैं. अलग-अलग समूहों द्वारा प्रकाशित यह रिपोर्टे दंगे को होने देने की मंशा और उसमें सरकारी मशीनरी की भूमिका की ओर तो इशारा करती ही हैं, इसके साथ ही ये रिपोर्टें इस दंगे में धर्म के स्वयंभू अलमबरदार की भूमिका को भी उजागर करती हैं. वास्तव में मुजफ्फरनगर दंगा राजनीतिक स्वार्थ सिद्घि के लिए सांप्रदायिक और कथित रूप से धर्मनिरपेक्ष कहे जानेवाले दो परस्पर विरोधी राजनीतिक खेमों के एक नये और खतरनाक गठजोड़ का नमूना है, जिसने सांप्रदायिकता की राजनीति के दो चेहरों सांप्रदायिकता और प्रति सांप्रदायिकता को उजागर करके रख दिया है. हालांकि यह केवल मुजफ्फरनगर में ही नहीं हुआ, बल्कि राज्य में नयी सरकार आने के बाद सांप्रदायिक झड़पों की मानों एक शृंखला ही शुरू हो गयी थी. राज्य सरकार ने सत्ता में आने के बाद स्वयं ही 27 सांप्रदायिक दंगे होने की पुष्टि की है. परंतु इन दंगों की सबसे बड़ी विशेषता इनका होना नहीं, बल्कि इनके भीतर छुपा सामाजिक समीकरण है. मुजफ्फरनगर से पहले हुए अधिकतर दंगों का निशाना जहां दलित और मुसलिम समुदाय रहे हैं, जिसने बसपा के दलित मुसलिम गठजोड़ को तोड़ने का काम किया, तो वहीं इसके निशाने पर अजीत सिंह का जाट-मुसलिम वोट बैंक था और जिसके बाद इस क्षेत्र में अजीत सिंह की राजनीति को समाप्तप्राय माना जा रहा है.

दरअसल सांप्रदायिक विभाजन की इस राजनीति के यही निहितार्थ हैं, जो दंगे में दो सक्रिय राजनीतिक पक्ष तैयार कर रहे हैं. वास्तव में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति देश में काफी पुरानी है, तो उसके रूपों में भी समयानुसार बदलाव आते रहे हैं, हालांकि इसमें सबसे तेजी का रुझान 90 के दशक के बाद से लगातार बना हुआ है. जो संाप्रदायिकता की इस राजनीति को नया फैलाव और नये आयाम दे रहा है. दंगे की इस राजनीति में सदा से दो पक्ष रहे हैं, जो दंगे की जमीन तैयार करते हैं. एक दौर में रथ यात्रा के बाद अलीगढ़ महीनों तक दंगे की ऐसी ही आग में झुलसता रहा था और स्थानीय मीडिया और जानकार लोग कहते थे कि इसमें जहां भाजपा के एक स्थानीय विधायक की भूमिका है, तो वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस के एक बड़े अल्पसंख्यक नेता का भी हाथ है. परंतु यह भी तथ्य है कि एक पार्टी और संगठन के तौर पर देश की सबसे बड़ी धर्मनिरपेक्ष पार्टी की इसमें कोई संगठित भूमिका थी, तो केवल संगठन के भीतर के सांप्रदायिक तत्वों पर कार्यवाही नही करना और खामोश रहना ही थी. यद्यपि आज की स्थिति तक पंहुचने में इस खामोशी की एक बड़ी और महत्वपूर्ण भूमिका रही है. सांप्रदायिक कार्ड खेल कर वोट पक्के करने की राजनीति में संप्रदायिक दलों में जहां बहुसंख्यक संप्रदाय के वोटों के ध्रुवीकरण की चाह है, तो वहीं तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों में अल्पसंख्यक समुदाय की असुरक्षा को बढ़ा कर उसका राजनीतिक दोहन करने की बढ़ती लालसा भी है.

बहरहाल सांप्रदायिक विभाजन की इस राजनीति की वर्तमान अवस्था में नब्बे के दशक के बाद के सांप्रदायिक और जातिवादी उभार का बड़ा योगदान है. 90 के दशक के बाद देश की राजनीति में यूं तो सोशलिस्टों अर्थात् सामाजिक जनवादी ताकतों का वर्चस्व बढ़ा है, परंतु यह भी वास्तविकता है कि इस दौर की राजनीति का पूरा फोकस सामाजिक-आर्थिक मुद्दों से कही अधिक अल्पसंख्यक जातिवादी गठजोड़ों पर ही रहा है. जातिवादी गठजोड़ों के इस प्रभाव ने ही एक तरह के नये राजनीति जातिवाद को जन्म दिया है और जिसे अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए हमेशा अल्पसंख्यक वोटों की आवश्यकता होती रही है. वोट के इस गठजोड़ का यह विचित्र विरोधाभास भी है कि इसकी सफलता के लिए जिस अल्पसंख्यक समुदाय की आवश्यकता है, वही सबसे अधिक उपेक्षा और दरिद्रता का शिकार है. इसी ध्रुवीकरण के मद्देनजर मध्य प्रदेश चुनावों में कांग्रेस की चुनाव अभियान समिति ने हाल ही में दिये गये अपने एक साक्षात्कार में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के उभार पर कहा कि उनके चुनाव प्रचार से राज्य में कांग्रेस को लाभ होगा और यदि वे मध्य प्रदेश में आते हैं, तो वह उनका स्वागत ही करेंगे. सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के कारण लगातार पिछड़ते हुए और दलित से भी बदतर हो गये अल्पसंख्यक संप्रदायों की यही सबसे बड़ी विडंबना है कि राजनीति की नयी पीढ़ी के बड़े नेता का यह बयान बताता है कि आनेवाले समय में भी देश में अल्पसंख्यक समुदायों के लिए विकास और सामाजिक न्याय की संभावनाएं कितनी सीमित हैं.

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