पृष्ठ

गुरुवार, 21 नवंबर 2013

विधानसभा चुनाव परिदृश्य में परिवर्तन

महेश राठी
पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की बढ़ती गर्मी संभवतया राजनीतिक दलों की चिंता के साथ ही चिंतन को भी प्रभावित कर रही है। यही कारण है कि इन राज्यों के ओपिनियन पोल बेशक नतीजों का अंदाजा देने में सक्षम नही हों परंतु राजनेताओं के बदलते बयान और विश्लेषण उनकी चिंताओं का पता दे रहे हैं। पांच राज्यों में होने वाले चुनावों से ठीक पहले पहले नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने वाली भाजपा जहां इन चुनावों को मोदी का लांचिंग पैड और 2014 के आम चुनावों का सेमिफाइनल मानकर चल रही थी वहीं अब उसके नेता कहने लगे हैं कि यह चुनाव कोई सेमीफाइनल नही हैं और ना ही इनके नतीजे 2014 के आम चुनावों को प्रभावित करेंगे।
चुनाव आयोग द्वारा दिल्ली, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और मिजोरम के चुनावों की अधिसूचना जारी होने के फौरन बाद पांच में से दो राज्यों में सत्तासीन भाजपा के प्रवक्ता ने इन चुनावों को नरेन्द्र मोदी के लांचिंग पैड के तौर पर देखते हुए कहा था कि मोदी की लोकप्रियता इन राज्यों में भाजपा की जीत की आशा को प्रोत्साहित करेगी। अपने इसी विश्लेषण को ध्यान में रखते हुए भाजपा ने मोदी की चुनाव अभियान की योजना तैयार की थी परंतु छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में भाजपा की रैलियों की कम भीड और पहले चरण के भारी मतदान ना केवल भाजपा के नेताओं के लिए परेशानी का कारण बने बल्कि अब तक पांच राज्यों के चुनावों को सेमिफाइनल मानकर चल रहे नेताओं ने अपने सुर ही बदल लिए हैं। अब भाजपा का शीर्ष नेतृत्व कह रहा है कि इन चुनावों से मोदी की लोकप्रियता का कोई संबंध नही है और पांच राज्यों के चुनाव राज्यों के स्थानीय सवालों और विकास के मुद्दों  पर हो रहे हैं। दरअसल भाजपा के इस यू टर्न के कईं कारक हैं एक मोदी पर हो रहे लगातार नये खुलासे और जनमानस पर उसका प्रभाव एवं छत्तीसगढ़ में पहले चरण के भारी मतदान के बाद भाजपा में बढ़ी बैचेनी इसका प्रमुख कारण माने जा सकते हैं।
छत्तीसगढ़ में 11 नवबंर को हुए पहलें चरण के मतदान का मुख्य केन्द्र बस्तर था जिसमें 2008 में हुए चुनावों में भाजपा को 15 में से 12 विधानसभा सीटे प्राप्त हुई थी और बस्तर में इस भारी जीत के कारण ही भाजपा राज्य में अपनी सरकार बचा सकी थी। परंतु चुनाव आयोग से प्राप्त अंतिम आंकड़ों के अनुसार इस बार के चुनाव में माओवादियों की तमाम धमकियों के बावजूद 75 प्रतिशत लोग मतदान के लिए अपने घरों से बाहर आये। इसको सभी चुनाव विश्लेषक राज्य सरकार के लिए खतरे की घंटी मानकर चल रहे हैं और यह राज्य में मोदी के धुआंधार प्रचार के बावजूद हो रहा है। केवल भारी मतदान नही बल्कि उससे पहले भी तमाम ओपिनियन पोल और राज्य की राजनीति के जानकार रमन सिंह सरकार को बस्तर में बड़ा नुकसान होने और राज्य में तीसरे मोर्चे विशेषकर भाकपा को बस्तर की कईं सीटों पर बढ़त की भविष्यवाणी करते रहे थे। मोदी के धुआंधार चुनाव अभियान के बावजूद भी जब भाजपा को कोई फायदा होता दिखाई नही दिया तो भाजपा ने  आखिरकार मोदी को पीछे धकेलकर डा. रमन सिंह, शिवराज सिंह चैहान जैसे स्थानीय क्षत्रपों को चुनाव अभियान के केन्द्र में रखकर विकास के मुद्दों का सहारा लिया।
केवल छत्तीसगढ़ ही नही मध्यप्रदेश में भी भाजपा का यही हाल है। 2003 के विधानसभा चुनावों में जहां कांगेस के पास महज 38 सीटें थी तो वहीं 2008 में उसने अपनी सीटों की संख्या बढ़ाकर 71 कर ली थी अर्थात उसे 33 सीटों का फायदा हुआ और इसी तरह का प्रदर्शन यदि कांग्रेस फिर दोहराती है तो भाजपा के लिए संकट की स्थिति हो सकती है। मध्यप्रदेश में कांग्रेस चुनाव अभियान कमेटी के संयोजक ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने एक साक्षात्कार में कह चुके हैं कि प्रदेश में मोदी के आने से उनको फायदा हो रहा है और मोदी की प्रचार अभियान यदि तेज होती है तो हम उसका स्वागत करेंगे। मोदी के आने से होने वाले ध्रुवीकरण और उससे होने वाले नुकसान को समझकर ही भाजपा और राज्य के मुख्यमंत्री अपने चुनाव अभियान को विकास, जन कल्याण, बिजली, पानी, अल्पसंख्यक सुरक्षा और सरकार द्वारा चलाई जा रही विभिन्न कल्याण योजनाओं पर केन्द्रित कर रहे हैं। पांच में चार राज्यों में क्लीन स्वीप करते हुए सरकार बनाने और मिजोरम में अच्छे प्रदर्शन का दावा करने वाली भाजपा की दिल्ली में बेहद विचित्र स्थिति है। यदि भाजपा दिल्ली में विकास को मुद्दा बनाती है तो उसके पास शीला दीक्षित के विकास के दावों और आंकड़ों का कोई जवाब नही है और यदि भाजपा भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाती है तो उसके खिलाफ लडाई का उससे ज्यादा मजबूत और मौलिक दावा अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के पास है। दिल्ली में भाजपा की स्थिति इस कदर कमजोर है कि उसे राज्य की मुख्यमंत्री के सामने लड़ने के लिए उम्मीदवार ढ़ूंढने के लिए भी खासी कसरत करनी पड़ी। नई दिल्ली की इस सीट पर शीला दीक्षित और अरविंद केजरीवाल के बीच सीधा मुकाबला है जिसमें भाजपा के तीसरे स्थान पर चले जाने की पक्की संभावना है। इसीलिए यहां पर भाजपा की समस्या चुनाव जीतने से अधिक दूसरे स्थान पर बने रहने की है। भाजपा की इस स्थिति और मतों के ध्रुवीकरण के खतरे को देखते हुए ही पूरे देश में धुंआधार चुनाव अभियान चलाने वाले नरेन्द्र मोदी की दिल्ली में अभी तक एक ही चुनावी सभा होना तय है। मोदी को बुलाने को लेकर यहां भी भाजपा संशय की स्थिति में है। राजस्थान में भी मोदी फेक्टर भाजपा के लिए परेशानी पैदा कर रहा है। राजस्थान के अल्पसंख्यक मतदाताओं को भाजपा नेता होने के बावजूद वसुंधरा राजे सिंधिया से कोई परेशानी नही थी परंतु मोदी के आने के बाद स्थितियां बदल गई हैं। मोदी के आने के बाद बने नए ध्रुवीकरण ने भाजपा के लिए नई परेशानियां पैदा की हैं, जिसका खमियाजा उसे राज्य के विधानसभा चुनावों में उठाना पडेगा।
जिस मोदी के नाम पर लहर और तुफान के दावे किये जा रहे थे उसके चुनाव अभियान देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी के लिए एक नए राजनीतिक जोखिम की आहट बन गई है, जिसे भाजपा के नेताओं के बदले हुए बयानों में आसानी से पढ़ा जा सकता है। भाजपा की इस मोदी लहर से लगता है कि उसके सूबाई क्षत्रप भी बचना चाह रहे हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें