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मंगलवार, 19 अगस्त 2014

बहाल होगा गंगा का निर्मल अविरल बहाव

महेश राठी
वर्तमान मोदी सरकार को गंगा की सफाई पर फटकार के बाद गंगा की स्वच्छताए प्रदुषण रहित निर्मल अविरल प्रवाह फिर से चर्चाओं में है। अपने अस्तित्व पर लगातार खतरे झेल रही भारत की इस जीवन रेखा को बचाने की मुहिम का विमर्श संभवतया अभी तक के अपने सबसे शीर्ष मुकाम पर है। गंगा पुनरोद्धार पर एक अलग मंत्रालय बन जाने के बाद अब गंगा बचाने की मुहिम में कई प्रकार के दृष्टिकोण और उपायों की चर्चा पूरे भारतीय मीडिया के लिए एक उल्लेखनीय और ध्यानाकार्षक विषय बनता जा रहा है। विकास के नारे पर सवार हो सत्ता में आई सरकार के लिए विकास बनाम पर्यावरण एक अहम् विषय है तो वहीं विकास और पर्यावरण के बीच समन्वय स्थापित करते हुए विकास का नया मॉडल अपनाना भी बहस का एक मुख्य विषय हैए परन्तु इन विकल्पों से अधिक इस समय गंगा को प्रदूषित करने वाले कारकों और उनके स्तरों को समझाने की है।
दरअसल गंगा के अस्तित्व को खतरा पैदा करने वाले कारणों को हम तीन भागों में बांट सकते हैंए गंगा के उद्भव की अवस्था के मूल कारणए औद्योगिक विकासजनित और जनसंख्या विस्फोट के कारण बढ़ता दबाव।  गंगा को अपने उद्गम स्थल और पूरे उत्तराखण्ड में अभी तक भी एक स्वच्छ और निर्मल जलधारा के रूप में जाना जाता है। यदि प्रत्यक्ष रूप से देखें तो गंगा की सभी सहयोगी जलधाराएं स्वच्छ और निर्मल दिखाई देती हैं परन्तु उत्तराखण्ड के किसी मूल निवासी से इसके बारे में जानने की कोशिश की जाए तो इस स्वच्छता की वास्तविकता और पिछले वर्षों में इसमें आई गिरावट को आसानी से समझा जा सकता है। वास्तव में यदि देखा जाए तो गंगा एक मैदानी नदी ही है क्योंकि गंगा देवप्रयाग में संगम के बाद ऋषिकेश में प्रकट होने के समय ही गंगा कहलाती है। इससे पहले गंगा अपनी सहयोगी जलधाराओं भागीरथीए मन्दाकिनीए पिण्डारए अलकनन्दा या मंदाकिनी के नाम से ही जानी जाती है। परन्तु अपने बेसिन में संभवतया दुनिया की सबसे बड़ी आबादी को आश्रय देने वाली आस्था और जीवन की प्रतीक इस नदी की यह सबसे बड़ी विडम्बना ही कही जाएगी कि यह महानदी गंगा बनने से पहले ही भारी प्रदूषण का शिकार हो रही है। गंगा का उद्गम स्थल पहाड़ी राज्य उत्तराखण्ड विकास के नाम पर अवैध खनन और अतिक्रमण का शिकार होकर भारी पर्यावरण क्षति का शिकार हो रहा है और इसका दुष्प्रभाव लगातार घटते ग्लेशियरों और दरकते हुए पहाड़ों में साफतौर पर दिखाई देता है। जिस कारण गंगा और उसकी सहायक नदिया में लगातार पानी में कमी हो रही है पिछले पांच दशक में गंगा की समुद्र में पानी की हिस्सेदारी में बीस प्रतिशत से भी अधिक गिरावट आई है। पानी की इस कमी के लिए विकास के नाम पर उत्तराखण्ड में हो रहे अंधाधुंध बांध निर्माण की भी एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इस समय उत्तराखण्ड में तैयार हो चुकेए निर्माणाधीन और छोटे बड़े प्रस्तावित बांधों की संख्या 300 से भी अधिक है। उत्तराखण्ड जैसे छोटे से पहाड़ी राज्य के लिए बेशक यह आंकड़ा हैरान कर देने वाला है। हालांकि अभी प्रस्तावित बांधों की बड़ी संख्या न्यायालय के हस्तक्षेप के कारण वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की वन सलाहकार कमेटी के पास विचाराधीन है। फिर भी अभी तक बन चुके छोटे.बड़े अनेकों बांधों ने इस प्रदेश के समाजिकए सांस्कृतिक और पर्यावरणीय जीवन और परिस्थितिकी को बुरी तरह प्रभावित करके इस पूरे क्षेत्र पर निर्णायक अमिट छाप छोड़ दी है।
गंगा के प्रदूषण का दूसरा मुख्य स्रोत औद्योगिक इकाईयों द्वारा छोड़े जाना वाला औद्योगिक कूड़ा और शहरी मल है। गंगा नदी के किनारे कम से कम 29 बड़े शहर 70 कस्बे और हजारों गांव स्थित है जिनसे लगातार इस मल एवं अपव्यय का उत्सर्जन होता रहता है। एक रिपोर्ट के अनुसार 2010 तक गांव और शहरों के द्वारा छोड़े जाने वाले इस मल अपव्यय की की मात्रा 13 करोड़ लीटर रोजाना आंकी गई थी। इसके अलावा इस रिपोर्ट में औद्योगिक अपव्यय का अनुमान भी 260 मिलियन के आसपास किया गया था। गंगा के प्रदूषण में नगर निकायों की हिस्सेदारी सबसे बड़ी 80 प्रतिशत थी तो वहीं औद्योगिक इकाईयों की हिस्सेदारी 15 प्रतिशत ही मानी गई थी। दुनिया की सबसे बड़ी आबादी को आश्रय देने वाली इस महानदी के बेसिन में औद्योगिक इकाईयों की संख्या भी बेहद विशाल और बेतरतीब है। एक अनुमान के अनुसार ऋषिकेश से प्रयागराज तक विभिन्न प्रकार की 146 औद्योगिक इकाईयां विद्यमान थी जिसमें 144 उत्तर प्रदेश में और दो उत्तराखण्ड में स्थित थी। गंगा को बड़े स्तर पर प्रदूषित करने वाली इन इकाईयों में कानपुर में स्थित चमड़ा उद्योग का एक बड़ा योगदान रहा है। हालांकि उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने पिछले कई सालों में कई इकाईयों को बन्द करवाया या बन्द करवाने की प्रक्रिया शुरू की है। इसके अलावा इन औद्योगिक इकाईयों की सघनता को कनौज और वाराणसी के बीच में स्थित 170 कारखानों और चर्मशोधन संयंत्रों की संख्या से ही समझा जा सकता है। इन औद्योगिक इकाईयों द्वारा पैदा किया जा रहा रासायनिक अपव्यय लगातार गंगा के पानी को प्रदूषित कर रहा है और इस बढ़ते प्रदूषण के कारण भारत की इस धार्मिक आस्थाओं की प्रतीक पौराणिक नदी का पानी न लोगों के पीने योग्य बचा है न ही स्नान करके पाप धोने लायक ही। इसके अतिरिक्त लगातार बढ़ती जनसंख्या का दबाव और लोगों की जीवनशैली में आ रहा परिवर्तन भी गंगा प्रदूषण को बढ़ा रहा है। बढ़ते शहरीकरण के कारण गंगा में गिरने वाले मल अपव्यय की मात्रा रोजाना बढ़ रही है। इस तेज होते शहरीकरण ने नदी तट पर होने वाले अतिक्रमण और नदी में से अवैध रेत खनन जैसे कारोबार को अराजक ढंग से बढ़ावा दिया है। इसके साथ ही भारतीय जीवन में गंगा नदी की धार्मिक महता भी गंगा के अस्तित्व के लिए संकट का कारण बन रही है। गंगा किनारे अन्तिम संस्कार इस दृष्टि से एक बड़ा संकट है जिससे गंगा के प्रदूषण में इजाफा होता है। यदि वाराणसी को इसका एक उदाहरण माने तो इस संकट को आसानी से समझा जा सकता है। वाराणसी में ही हर साल चालीस हजार से अधिक शवों का अन्तिम संस्कार हो रहा है और गंगा का हर किनारा इस धार्मिक और सामाजिक विधान के लिए महत्वपूर्ण है। अब एक शहर के उदाहरण से शव दहन की इस प्रक्रिया की विशालता को समझा जा सकता है। यह कुछ ऐसे प्रमुख कारक हैं जो लगातार गंगा के अस्तित्व को चुनौती दे रहे हैं।
 भारत सरकार ने गंगा के निर्मलए स्वच्छ और निर्बाध प्रवाह को बनाए रखने के लिए 1986 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कार्यकाल में गंगा एक्शन प्लान की शुरूआत हुई। जिसमें 25 प्रथम श्रेणी शहरों में गंगा को प्रदूषण मुक्त करने का अभियान चलाया गया बाद में 2000 में अधिकारिक रूप से दस गंगा एक्शन प्लान को बंद कर दिया परन्तु उससे पहले उस एक्शन प्लान के अनुभवों के आधार पर 1993 में एक्शन प्लान फेज 2 को अनुमति प्रदान की गई। इसके अलावा सरकार ने गंगा और उसके महत्व को ध्यान में रखते हुए पर्यावरण सुरक्षा कानून 1986 के अन्तर्गत प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में नेशनल रिवर गंगा बेसिन अथॉरिटी का 20 फरवरी 2009 को निर्माण किया गया। इस अथॉरिटी में संबंधित सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को भी शामिल किया गया। इसी के साथ भारत सरकार ने गंगा को राष्ट्रीय नदी भी घोषित किया गया। अब वर्तमान सरकार के सामने देश की जनता से किये गये विभिन्नबहाल होगा गंगा का निर्मल अविरल बहाव?

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