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बुधवार, 3 सितंबर 2014

प्रासंगिकता खोता संयुक्तराष्ट्

महेश राठी 

विश्व शान्ति, सुरक्षा और मानवाधिकारों का दायित्व संभालने वाले संयुक्तराष्ट्र की अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर प्रभावहीन होती भूमिका और इस पर अमेरिका के पक्षपाती रवैये का बढ़ता प्रभुत्व इस अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की प्रासंगिकता पर सवाल खड़े कर कमोबेश रही है। शान्ति और जनवाद के तमाम दावों के बावजूद इसकी अपारदर्शी, प्रभावहीन भूमिका और लोकतन्त्र के अभाव की कार्यप्रणाली पर समय -समय पर खड़े किए जा रहे सवाल इस संगठन की निरर्थकता को ही रेखांकित कर रहे हैं। परमाणु शक्ति संपन्न शक्तिशाली देशों का संगठन विश्व शान्ति का प्रहरी होने के बेशक लाख दावे करे मगर यह भी निर्विवाद तथ्य है कि अपनी वीटो शक्ति, असमान भूराजनैतिक प्रतिनिधित्व और राष्ट्र व राज्यों के बीच असंतुलित मताधिकार के कारण संयुक्तराष्ट्र संघ के निर्णय और सत्ता संतुलन ऐतिहासिक रूप से दुनिया की पांच महाशक्तियों के पक्ष में झुके होते थे, परंतु वर्तमान आर्थिक, राजनीतिक और सामरिक रूप से एकध्रुवीय होती दुनिया के शक्ति समीकरणों ने संयुक्त राष्ट्र को मानों अमेरिका की मातहत संस्था ही बना कर रख दिया है। 
संयुक्त राष्ट्र के दिन प्रतिदिन प्रभावहीन और कमजोर होने से उसकी घटती हस्तक्षेप की ताकत प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्वयुद्ध के मध्य रहे लीग ऑफ  नेशन अर्थात राष्ट्र संघ की याद ताजा कर जाती है। राष्ट्र संघ की कमजोरी और अपने हितों की पूर्ति के लिए दुनिया के उस समय के ताकतवर देशों का गठजोड़ ही द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका का कारण बना था। दुनिया के शान्तिकामी देशों और लीग ऑफ  नेशन्स को अंगूठा दिखाकर इटली के तानाशाह मुसोलिनी ने इथोपिया के साथ दूसरे युद्ध में अपनी भारी भरकम फ ौज दी और इसमें राष्ट्र संघ के दखल से जाहिर हुआ कि किस प्रकार वह केवल अपने सदस्य देशों के हितों के लिए काम करता है। इसी प्रकार राष्ट्र संघ की विफ लता स्पैनिश गृह युद्ध और चीन जापान युद्ध में जाहिर हुई तो वहीं द्वितीय विश्व युद्ध की नींव रखने वाले इन संघर्षों और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान राष्ट्र संघ के रेडक्रास राहत शिविरों और चिकित्सा शिविरों पर हमलों के आरोपों ने भी राष्ट्र संघ की कमजोरी और प्रभावहीनता को पूरी तरह उजागर करके रख दिया था। आज भी जब गाजा पट्टी पर इजरायली द्वारा हमलों के दौरान जब संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा इजरायल को 17 बार चेतावनी देने के बावजूद उसने गाजा पट्टी में स्थित उसके 3 हजार लोगों के राहत शिविर पर हमला किया तो इस एक घटना ने राष्ट्र संघ और द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान उसकी निरर्थकता की याद को जिंदा कर दिया।
वास्तव में संयुक्त राष्ट्र संघ का वर्तमान स्वरूप आधारभूत रूप से औपनिवेशिक काल की मित्र राष्ट्र्रों द्वारा विश्व को नियंत्रित करने की अवधारणा पर टिका है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद 1945 में सुरक्षा परिषद की स्थापना के समय दुनिया का बहुत बड़ा हिस्सा सम्राज्यवादी देशों का गुलाम था तो स्वाभाविक है कि उस समय के सत्ता समीकरण और दुनिया में शान्ति और सुरक्षा स्थापित करने के मापदण्ड एवं परिभाषाएं वर्तमान समय से एकदम भिन्न थी। यही कारण है कि दुनिया के ताकतवर देशों को दुनिया में शान्ति स्थापित करने के लिए कुछ विशेषाधिकार प्राप्त हुए। फ ॉसीवादी खलनायक धुरी देशों जर्मन, जापान और इटली को हराने और भविष्य में ऐसे खतरों के दोहराए जाने की आशंका को देखते हुए मित्र राष्ट्रों को इस प्रकार का विशेषाधिकार मिलना स्वाभाविक भी था। परन्तु वर्तमान समय में दुनिया के देशों के बीच शक्ति संतुलन और राजनीतिक चेतना में मात्रात्मक और गुणात्मक स्तर पर भारी बदलाव आ चुका है। हालांकि सुरक्षा परिषद के पांचों स्थायी सदस्य अभी भी सामरिक दृष्टि से दुनिया के दस सबसे ताकतवर देशों में शुमार हैं और निर्विवाद रूप से दुनिया के आधे हथियारों का मालिक अमेरिका है। परन्तु उसके बावजूद भी कई नई क्षेत्रिय शक्तियों और अर्थव्यवस्थाओं का दुनिया के नक्शेे पर पर्दापण हुआ है। इन परिवर्तन के बाद भी अब तक सुरक्षा परिषद के शक्ति संतुलन और निर्णयों को प्रभावित करने वाली वीटो पॉवर की स्थिति 1945 की अवस्था में है। 
यह वीटो अर्थात निषेधाधिकार ही संयुक्त राष्ट्र संघ के जनवाद विरोधी स्वरूप का सूत्रधार और प्रमुख कारक है। यह वीटो की शक्ति किसी भी प्रस्ताव को सुरक्षा परिषद के एजेन्डे में जाने से रोक सकती है, प्रस्ताव को निरस्त कर सकती है और यहां तक कि वीटो के इस्तेमाल की धमकी भर से ही किसी प्रस्ताव की मूल भावना और उसकी भाषा या पाठ्य को बदला जा सकता है। संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना से अभी कुछ वर्षों पहले तक अमेरिका 82 बार रूस या पूर्व सोवियत संघ 123 बार, इंग्लैंड 32 बार, फ्रांस 18 बार और चीन 6 बार इस वीटो शक्ति का इस्तेमाल कर चुके हैं। वीटो के प्रयोग और उसके राजनीतिक निहितार्थों की भी सभी देशों की एक लम्बी और अलग दास्तान है। जहां पूर्व सोवियत संघ ने अपनी वीटो शक्ति का ज्यादातर इस्तेमाल संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के शुरूआती दस सालों में किया था वहीं अमेरिका ने नवउदारवाद के दौर में 1984 के बाद से अभी तक 45 बार वीटो की अपनी शक्ति का इस्तेमाल किया है। ध्यान रहे कि संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के शुरूआती दस साल वह थे जब दुनिया के अधिकतर गुलाम देशों को आजादी मिली और नए तरह के उभरते अन्तर्राष्ट्रीय संघर्षों में नव स्वतंत्र देशों की आजादी को बचाने की आवश्यकता थी मगर इस नई उदारवादी एकध्रुवीय दुनिया में रूस ने महज चार बार वीटो शक्ति का इस्तेमाल किया जबकि इंग्लैंड तक भी इसका इस्तेमाल उससे अधिक 10 बार कर चुका है। वीटो से किस प्रकार अपने हित साधने वाले राजनीतिक समीकरणों का बचाव किया जा सकता है इसका सटीक उदाहरण मध्यपूर्व में अपनी उपस्थिति और मुस्लिम विरोधी रवैये के लिए कुख्यात इजरायल है। अमेरिका इजरायल के खिलाफ  या उसकी आलोचना के लिए आने वाले प्रस्तावों पर अस्सी के दशक से अभी तक 32 बार वीटो कर चुका है। दरअसल यही संयुक्त राष्ट्र संघ की इस गैर जनवादी वीटो शक्ति का राजनीतिक अर्थशास्त्र है जिसमें महाशक्तियों के आर्थिक हितों को साधने वाली राजनीतिक तिकड़मों की भरमार ज्यादा और दुनिया की शान्ति और सुरक्षा की फ्रि क कम है। 
असल स्थायी सदस्यता के लिए संघर्षरत तीसरी दुनिया के देशों को स्थायी सदस्यता से अधिक ऐसे संयुक्त राष्ट्रसंघ के पुनर्गठन के लिए कोशिश करनी चाहिए जो दुनिया के शक्तिशाली देशों के दुनिया पर वर्चस्व की अपेक्षा दुनिया में लोगों की भूख, बेकारी, स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास और समाजिक विस्थापन, देशों के बीच संघर्षों एवं देशों के भीतर समाजिक संघर्षों के सवालों को सम्बोधित करते हुए सबके लिए शान्तिपूर्ण और सुरक्षित दुनिया का निर्माण कर सके। समानता के आधार पर आपसी सहमति से बनी ऐसी विश्व जनवादी व्यवस्था का निर्माण ही दुनिया में संयुक्त राष्ट्र संघ के शान्ति और सुरक्षा के उद्देश्य को पूरा कर सकता है।

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