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शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

विकास का सबसे बड़ा छल जन धन

 महेश राठी
नव उदारवादी आर्थिक नीतियां तमाम फैलती विषमताओं, बढ़ती बेकारी, भयावह होती अनिश्चितताओं और हवा होती सामाजिक सुरक्षा के बीच उन्मुक्त और उन्मादी भाव से वास्तविक उत्पादक अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को वित्तीयकरण के माध्यम से लगातार एक )ण अर्थव्यवस्था में बदल रही है। वित्तीयकरण की इस प्रक्रिया को बैंकिंग के अधिकार के रूप में वित्तीय समावेशन के द्वारा आगे बढ़ाया जा रहा है। वित्तीय समावेशन को भारत की नई नरेन्द्र मोदी सरकार ने प्रधानमंत्री जन-धन योजना का लुभावना नाम दिया है। हालांकि वर्तमान आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक अनिश्चितता के बीच बेहद लोकलुभावने रूप में पेश की जा रही यह पंूजी की एक ऐसी उडान है जो ना केवल वर्तमान बल्कि भारतीय आम आदमी की भविष्य की आय को भी ले उड़ेगी।
प्रधानमंत्री जन-धन योजना
प्रधानमंत्री ने स्वतंत्रता दिवस के अपने भाषण में इस योजना की घोषण की और 28 अगस्त को इसे औपचारिक रूप से लागू कर दिया गया। असल में यह योजना नव उदारवाद को क्रियान्वित करने वाले विश्वबैंक और दुनिया की कई वित्तीय संस्थानों के वित्तीय समावेश के लिए गठजोड़ ;एएफआईद्ध द्वारा शुरू किए गये वित्तीय समावेशन ;फाइनेंसियल इनक्लूजनद्ध मिशन का ही भारतीय संस्करण है। जन धन योजना के नाम से शुरू की गई इस योजना में का मकसद देश के सभी परिवारों तक बैंकिंग प्रणाली की पहंुच बनाना है। इस योजना के अनुसार प्रत्येक परिवार का बैंक खाता खोलकर और खाताधारक को रूपे नामक एटीएम कार्ड देकर और छह माह के बाद 5 हजार रू. की ओवर ड्राफ्ट सुविधा प्रदान करते हुए प्रत्येक परिवार को बैंकिंग की आदत बनाना है। इसके अलावा इस बैंक खाते में खाताधारक को 1 लाख रूपये तक का दुर्घटना बीमा और किसानों के लिए आगे किसान क्रेडिट कार्ड बनाने का भी प्रावधान है और इस योजना के अगले चरण में किसान क्रेडिट कार्ड के अलावा माइक्रो इश्योरेंस और पेंशन आदि के साथ इलेक्ट्रोनिक बेनीफिट ट्रांसफर ;इबीटीद्ध से जोड़ने की योजना भी है। एनडीए सरकार इस योजना को अपनी एक बड़ी उपलब्धि के रूप में पेश कर रही है। जबकि वास्तविकता यह है कि यह नवउदारवाद आर्थिक नीतियों के पैरोकारों की वैश्विक वित्तीय समावेशन योजना का ही हिस्सा है और सितम्बर 2012 में कांगे्रस नीत यूपीए-2 सरकार के कार्यकाल में ही भारतीय रिजर्व बैंक वित्तीय समावेशन के लिए गठजोड़ ;एएफआईद्ध के 92 वें सदस्य के रूप में शामिल हो गया था। एएफआई के 92वें सदस्य के रूप में जुड़ने का अर्थ है कि आपने वित्तीय समावेशन के प्रति और उसे क्रियान्वित करने के लिए अपनी सहमति और प्रतिब(ता जाहिर कर दी थी।
वित्तीय समावेशन के लिए गठजोड़
वित्तीय समावेशन के लिए गठजोड अर्थात एलायंस फाॅर फाइनेंसियल इनक्लूजन ;एएफआईद्ध वित्तीय समावेश के नीति निर्माताओं का दुनिया का सबसे बड़ा और प्रमुख नेटवर्क है जिसका उद्देश्य उभरती हुई विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के आम नागरिकों तक वित्तीय सेवाओं को पहंुचाना है। दरअसल इस नेटवर्क के निशाने पर विकासशील देशों की दुनिया के वह 2.5 बिलियन लोग हैं जो अभी भी वास्तविक उत्पादक अर्थव्यवस्था से जुड़े हैं। एएफआई की स्थापना 2008 में वैश्विक मंदी के दौर में आॅस्ऐड ;आस्ट्रेलियाई विदेशी साहयता विभाग का कार्यक्रमद्ध की साहयता से बिल और मिलिन्डा गेट्स द्वारा पोषित संगठन के रूप में हुई थी। इसके 2008 से 2013 तक इसके साथ दुनिया के 88 देशों के 105 वित्त संस्थान जुड़ चुके हैं। एएफआई अपनी योजनाओं को धार देने के लिए प्रत्येक वर्ष एक वैश्विक पाॅलिसी फोरम का आयोजन करता है। इसी क्रम में इसने वित्तीय समावेशन का एक साझा सि(ान्त और लक्ष्य तय करने के लिए ‘माया घोषणा‘ नामक दस्तावेज भी तैयार और जारी किया। जिसका उद्देश्य वित्तीय समावेशन के लिए साक्षरता अभियान चलाना और योजना को प्रभावी और एक समान रूप से लागू कराना है।
वित्तीय समावेशन का
भारतीय संदर्भ
भारतीय रिजर्व बैंक ने वित्तीय समावेशन के लिए प्रतिब(ता दिखाते हुए देश के सभी व्यस्क लोगों को बैंकिंग अधिकार देने और 2016 तक सभी के आधार से जुड़े बैंक खाते खोलने का लक्ष्य रखा था। आधार से जुड़ा बैंक खाता ऐसा शून्य जमा राशि वाला जमा खाता होगा जिसमें खाताधारक को एक डेबिट कार्ड भी दिया जाएगा।
भारतीय रिजर्व बैंक ने वित्तीय समावेशन पर काम करने के लिए 2004 में एक खान आयोग का गठन किया था। इसके बाद 2010 में रघुराजन कमेटी का गठन भी वित्तीय क्षेत्र और वित्तीय सेवाओं में सुधारों के लिए किया गया था और उन्होंने अपनी रिपोर्ट में व्यापक वित्तीय सुधारों पर जोर दिया। वित्तीय समावेशन के लिए भारतीय रिजर्व बैंक ने बैंकर और आईसीआईसीआई के पूर्व कार्यकारी निदेशक नचिकेता मोर की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया। जिसने जनवरी 2014 को अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी और उसी कमेटी की रिपोर्ट के नतीजे के रूप में यह जन-धन योजना सामने आयी है। मोर कमेटी की सिफारिशों में वित्तीय समावेशन के लिए बैंकिंग ढ़ांचे में मूलभूत बदलाव की बात कही गई है। रिपोर्ट में कम आय वाले परिवारों के लिए 2016 तक विशेष प्रकार के नए बैंक खोलने की सिफारिश की गई है। इसमें खाताधारका को धन जमा और निकासी की सुविधा उसके आवास से 15 मिनट की दूरी पर ही देने की बात भी कही गयी है और 1 जनवरी 2016 तक 18 वर्ष से अधिक के सभी व्यस्को को बैंक खाताधारक बनाने का लक्ष्य रखकर काम करने की सिफारिश भी अपनी रिपोर्ट में की है। इस कमेटी के पैनल ने आॅस्ट्रेलिया और अमेरिका की तर्ज पर छोटे और भुगतान बैंक खोलने के लिए लक्ष्य निर्धारित करने पर भी जोर दिया गया है। यह बैंक वर्तमान पूर्ण सेवा प्रदाता बैंकों की पंूजी सीमा 500 करोड़ से कम उनके महज 10 प्रतिशत यानि 50 करोड़ रूपये की पंूजी वाले हो सकते हैं। इस रिपोर्ट में सिफारिश की गई है कि कृषि को आधार दर से कम पर )ण देने की सुविधा बैंकों से वापस ले लेनी चाहिए। मोर कमेटी ने कृषि क्षेत्र के लिए वित्तीय सहायता में सुधार पर जोर देते हुए नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ाते हुए कहा है कि कृषि क्षेत्र में कर्ज की सुविधाओं में बदलाव करते हुए ब्याज माफी और कर्ज माफी की राजनीतिक योजनाओं को बंद कर दिया जाना चाहिए और किसानों को दी जाने वाली सब्सिड़ी भी सीधे उनके खाते में ट्रांसफर कर दी जानी चाहिए। हालांकि उसने कार्पोरेट घरानों को दिये जाने वाले कर्ज और भारी कर्ज माफी पर कुछ नही कहा है। इस कमेटी का यह भी सुझाव है कि आधार कार्ड के बनने के आधार पर आॅटोमेटिकली बैंक खाता खुल जाने की व्यवस्था भी की जानी चाहिए। यह वित्तीय समावेशन जिसे नई मोदी सरकार जन-धन जैसा लोकलुभावना नाम देकर जनता पर थोपने की भरपूर कोशिश कर रही है, कई वर्षों से वित्तीय क्षेत्र में चर्चा का प्रमुख विषय बना हुआ है।
बहरहाल मोदी सरकार की यह जन धन योजना मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए-2 की कैश ट्रांसफर योजना का ही एक रूप है। मनमोहन सिंह सरकार ने जहां पहले कैश ट्रांसफर की बात कही और बाद में आधार से जोड़कर बैंक खाते खोलने का प्रावधान किया तो वहीं मोदी की सरकार पहले बैंक खाते और फिर उसके बाद नचिकेता मोर कमेटी की अन्य सिफारिशों के अनुपालन की राह पर चलकर इस योजना को इस प्रकार पेश कर रही है मानो यह जनता की हितकारी योजना है। जबकि वास्तविकता यह है कि देश की शहरी और ग्रामीण आम जनता की मेहनत की कमाई को लूटने और उसे कर्ज के जाल में धकेलने की एक बड़ी साजिश से अधिक कुछ भी नही है।
वित्त क्षेत्र पर जोर क्यों?
वास्तव में हमारी विश्व अर्थव्यवस्था कार्पोरेट घरानों के लालच के कारण वस्तुओं, सेवाओं और वास्तविक मूल्य की वास्तविक उत्पादक अर्थव्यस्था से हटकर कर्ज अर्थव्यवस्था अर्थात वित्तीय अर्थव्यवस्था की तरफ जा रही है। वित्तीयकरण की इस बढ़ती हुई भूमिका का प्रभाव आज अर्थव्यवस्था में दिखाई पड़ने वाले अनगिनत घपलों और घोटालों में दिखाई पड़ता है। यही वित्त अर्थव्यवस्था की शुरूआत इस तथाकथित विकास के फुलते हुए गुब्बारे इसके फटने और विश्व मंदी के पीछे भी है। वास्तविक उत्पादक अर्थव्यवस्था से दूर हटती और कर्ज अर्थव्यवस्था में बदलती आर्थिक प्रणाली का ही नतीजा ‘सिकुड़ते रोजगार अवसर, घटता वेतन और अर्थव्यस्था में उछाल‘ के रूप में दिखाई पड़ता है। यदि अमेरिका का उदाहरण लें तो 1960 के दशक में जहां उसकी अर्थव्यवस्था में वित्त क्षेत्र की हिस्सेदारी 10 प्रतिशत के आसपास थी तो वहीं यह 2000 और 2012 तक बढ़कर 42.5 प्रतिशत से भी अधिक हो चुकी थी, जो अमेरिका की अर्थव्यवस्था में वित्त क्षेत्र के बढ़ते हुए योगदान को रेखांकित करता है। इसे नीचे दिये ग्राफ के द्वारा आसानी से समझा जा सकता है।
1960 के अंतिम वर्षों में यह मुनाफा जहां 14 प्रतिशत से भी कम था वहीं यह 80 के दशक के बाद तेजी से बढ़ना शुरू हुआ और 2004 तक 42.5 प्रतिशत तक पहंुच गया। हालांकि 2008 की मंदी के समय यह फिर नीचे आया परंतु अभी दोबारा यह 27 प्रतिशत के लगभग बना हुआ है। 1960 के दशक और उसके बाद जब अर्थव्यवस्था में वृ(ि थोड़ी कम रफ्तार से हो रही थी तो उस समय अर्थव्यवस्था में मुनाफे का बड़ा हिस्सा जनता के कब्जे में था, आय असमानता कम थी और रोजगार के अवसर एवं उत्पादक गतिविधियां तुलनात्मक रूप से कहीं अधिक थी। परंतु जब अर्थव्यस्था में तेज उछाल दिखाई पड़ता है तो यह वो समय है जब आय का बड़ा हिस्सा कार्पोरेट और उसके वित्तीय निवेश के कब्जे में चला गया था, रोजगार के अवसर घट गये थे और उत्पादन गिर गया और धीरे धीरे दुनिया की अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में आ गयी। वर्तमान समय में भारत में भी अर्थव्यवस्था इसी दिशा में अग्रसर हो रही है। जिसके लिए नव उदारवाद के भारतीय पैरोकारों ने वित्त समावेशन के नाम पर देश की जनता को वित्त क्षेत्र और वित्त सेवाओं से जोड़ने की ऐसी योजना तैयार की है जो देश की मेहनतकश जनता की आमदनी के एक निश्चित हिस्से को समावेशित करते हुए उसे कार्पोरेट को ट्रांसफर करने की एक टिकाउ व्यवस्था के रूप में काम करेगी। यह देश की अर्थव्यवस्था और उसके नीति निर्माताओं पर कार्पोरेट के नियंत्रण को जाहिर करने वाली योजना है।
वित्तीय समावेशन ;जन-धनद्ध का प्रभाव
देश के आम आदमी पर इस योजना का एक व्यापक प्रभाव पड़ने वाला है जिसके भयावह नतीजे आने वाले वर्षो में दिखाई देने लगेंगे। अभी हो सकता है कि जन धन योजना के माध्यम से देश के प्रत्येक नागरिक को वित्त क्षेत्र और वित्त सेवाओं से जोड़ने की यह योजना बेहद लुभावनी लगे परंतु यह तय है कि आने वाले वर्षों में इसके खतरनाक नतीजे लोगों के सामने आने शुरू हो जायोंगे। दरअसल जैसे कि पहले भी बताया जा चुका है कि यह वास्तविक अर्थव्यवस्था से कर्ज अर्थव्यवस्था की ओर स्थानान्तरण की योजना है। वास्तविक अर्थव्यवस्था में देश लोगों को उत्पादक गतिविधियों में लगा करके उन्हें आय के अवसर देता है। जिसमें एक व्यक्ति अपनी संचित आय को अपने भविष्य के लिए जमा करता है और उस जमा को फिर भविष्य में अपने मकान, शादी विवाह, गाड़ी अथवा अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उपयोग में लाता है। ऐसी अर्थव्यवस्था में लोगों के जीवन में कर्ज की भूमिका एकदम नगण्य होती है। परंतु नई )ण अर्थव्यवस्था लोगों को आज की अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए भविष्य से कर्ज लेने के लिए प्रेरित करती है। वे अपना मकान बनाते हैं और 15-20 वर्षो तक उसकी किश्त चुकाते हैं। फिर कार खरदते हैं और कई सालों तक उसकी किश्त चुकाते हैं। घर से लेकर कार और अन्य वस्तुओं की वास्तविक कीमत से कही अधिक कीमत अदा करते हैं। यही वर्तमान वित्त क्षेत्र की आवश्यकता है कि लोग कर्ज लें और बड़े कार्पोरेट घरोनों को ब्याज देते रहें, जिसके राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय वित्त पंूजी का गठजोड़ पूरी दुनिया में वास्तविक अर्थव्यवस्था को )ण अर्थव्यवस्था में बदलने की योजना पर काम कर रहा है। इसी योजना को मूर्त रूप देने के लिए कार्पोरेट पंूजी ने दुनिया भर के सभी देशों के केन्द्रीय बैंकों और प्रमुख वित्त संस्थानों को लेकर एलायंस फाॅर फाइनेंसियल इनक्लूजन नामक गठजोड़ तैयार किया है, जो पूरी दुनिया के नागरिकों को वित्तीय समावेशन के नाम पर अपनी कर्ज अर्थव्यवस्था के जाल में फंसा रहा है।
ऐसा नही है कि यह सिर्फ वित्तीय समावेशन द्वारा लोगों को ईएमआई अर्थव्यवस्था में धकेलने की ही योजना हैै। इसके ओर भी दूरगामी परिणाम पूरी दुनिया के पैमाने पर दिखाई देंगे और दिखाई दे भी रहे हैं। कर्ज की इस अर्थव्यवस्था के प्रभाव शिक्षा, स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी दिखाई देंगे। लोगों द्वारा अपने लिए गये कर्ज को उतारने के लिए और नई कर्ज अर्थव्यवस्था द्वारा गढ़ी गई कर्ज से बनी चमकीली दुनिया में जीने के लिए अपने बच्चों को विभिन्न प्रकार की शिक्षा और उसके लिए कर्ज की तरफ धकेलने को विवश होना होगा और इस कर्ज की चिंता और मासिक ईएमआई के बोझ से पैदा हुई मानसिक बीमारियों से जुझते हुए बड़े कार्पोरेट घरानों द्वारा बनाए पांच सितारा अस्पातालों और उनमें इजाज करवाने के लिए विभिन्न कंपनियों के मेड़ीक्लेम की तरफ दौड़ना होगा। )ण अर्थव्यस्था का यह ऐसा मकड़जाल है जिसमें अभी तक शहरी मध्य वर्ग का एक बड़ा हिस्सा फंसा हुआ था परंतु अब मुक्त बाजार प्रणाली के नीति निर्माताओं की निगाह शहरी गरीब बस्तियों और दूर दराज की ग्रामीण मेहनतकश जनता पर भी है।
इसके अतिरिक्त जन धन योजना में प्रत्येक खाताधारक को 5 हजार का ओवरड्राफ्ट दिये जाने में भी कार्पोरेट घरानों के साथ मिलकर बड़े घपले घोटालों की अकूत संभावना है।
यह अनायास नही है कि इस जन धन योजना की घोषणा के साथ ही भारत सरकार वित्त और बैंकिंग सुधारों के लिए इतनी बेताब दिखाई पड़ रही है। भारतीय रिजर्व बैंक ने घोषणा की है कि इस वित्त वर्ष के अंत तक छोटे बैंकों और भुगतान बैंकों को लाइसेंस जारी कर दिये जाऐंगे। अभी भी भारतीय रिजर्व बैंक के पास इस प्रकार के बैंकों के लिए कईं आवेदन पड़े हैं और रिजर्व बैंक मोर कमेटी की सिफारिशों के अनुसार गैर बैंकिंग वित्त कंपनियों को भी इस व्यवसाय में छूट देने की तैयारी कर रहा है।
विकास पुरूष नरेन्द्र मोदी सरकार की विकास की यही उंची उड़ान होगी कि फसल आने के समय अपनी प्याज को 3 रू. किलो में बेच चुका नासिक का किसान उसी प्याज को आॅफ सीजन में अंबानी के रिलायंस फ्रेश से मोदी के दिये गए रूपे कार्ड में मिले ओवरड्राफ्ट से 30 रू. किलो खरीदेगा और बाद में उस खरीद पर किसी अंबानी अथवा अड़ानी के बैंक को ब्याज भी चुकायेगा और जन धन विकास पर इतरायेगा। नव उदारवाद की इस लालच आधारित प्रधानमंत्री जन धन योजना का सबसे रोचक पहलू यही है कि जनता और देश के नाम पर सब कुछ कार्पोरेट पंूजी का होने जा रहा।


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