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शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

लव जेहादी अवसरवादिता का इंकलाब

महेश राठी
संकीर्णता इंकलाबी होने का दावा करे अथवा उसका रंग धार्मिक कट्टरता का हो जब अपनी हदों को छूती हैं तो दोनो एक हो जाती है। उनकी उंचाईयों से कथनी करनी का फर्क, समूह की हिंसात्मक वीरता, अतिवादी दुस्साहस और तथाकथित क्रान्तिकारिता और परिवर्तनकारी होने का दंभ एक समान रूप से टपकता है।
वैसे जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में लाल परचम की जीत पर बेशक वाम खेमे के कई दिग्गज संतोष जाहिर कर रहे हों परंतु लाल झण्ड़े की इस जीत ने असल में इस बार वामपंथी राजनीति के स्थापित जनवादी और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को ना केवल तार तार किया है बल्कि इस तथ्य को भी रेखांकित कर दिया  है कि संकीर्णता जीत के लिए ढ़ीठ होकर स्वयं को दक्षिणपंथी नारों के साथ किस प्रकार एकाकार कर सकती है। संसदीय लोकतंत्र के विरोध से जन्मा अतिवादी वामपंथ जीत के लिए इस प्रकार जनूनी होता है कि अंतर धार्मिक विवाह जैसे प्रगतिशील कदम के खिलाफ भी घृणित प्रचार कर सकता है और एक अल्पसंख्यक लड़की के साड़ी पहनने को गुनाहे अजीम की तरह पेश कर सकता है। भारत का दक्षिणपंथ भी जिस लव जेहाद को छूपे तौर पर ही इस्तेमाल करता रहा उस लव जेहाद का इस्तेमाल जेनयू के तथाकथित वामपंथ ने सार्वजनिक तौर पर किया। संभवतया इसे मार्क्सवादी दर्शन की प्रगतिशीलता और क्रान्तिकारिता के रूप में तो कतई पेश किया ही नही जा सकता है। यह एक ऐसे लाल परचम की जीत है जिसका रंग उड़ते उड़ते भगवा हो चुका है। और यह अनायास नही है कि जेनयू परिसर में इस तथाकथित वामपंथ और दक्षिणपंथी छात्र संगठन के पनपे और सशक्त होने की पटकथा साथ साथ लिखी गई और इनका सफर भी कदम दर कदम साथ हमकदम की तरह रहा है।
भारतीय वामपंथ का जन्म स्वाभाविक रूप से इस देश के राष्ट्रीय आंदोलन के भीतर से ही हुआ है। आजादी के आंदोलन के गौरवशाली इतिहास में लिखी हुई स्वर्णिम इबारत पेशावर, लाहौर और मेरठ षड़यंत्र केस के जीवट और जाबांज चेहरों और नामों ने मिलकर इस देश के वामपंथ की नीव रखी। जिसका अर्थ स्पष्ट है कि वामपंथ स्वाभाविक रूप से भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का ही हिस्सा रहा है। परंतु यह भी एक ऐतिहासिक त्रासदी ही है कि आज तथाकथित क्रान्तिकारिता का दंभ भरने वाले वामपंथी अतिवाद ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की कोख से जन्मे वामपंथ को राष्ट्रीय आंदोलन से अलग करने और दक्षिणपंथ को सहारा देने का ही काम किया है। भारतीय वामपंथ को राष्ट्रीय आंदोलन से अलग करने की कोशिशें आजादी के फौरन बाद ही शुरू हो चुकी थी और वामपंथ को राष्ट्रीय आंदोलन से अलग एक अति क्रान्तिकारी और दुस्साहसिक शक्ल देने में इन वामपंथी अतिवादियों ने दक्षिणपंथी प्रभुत्व वाले मंचों को भी सुशोभित करने से गुरेज नही किया। इसका परिणाम भारतीय राजनीति में हाशिये पर पड़े दक्षिणपंथ के राजनीति की मुख्यधारा के मंच पर सशक्त रूप से आकर जम जाने के रूप में देखा गया। जिसका खामियाजा आज भी देश को भुगतना पड़ रहा है। दरअसल जब तक वामपक्ष राष्ट्रीय आंदोलन की जनवादी ताकतों के साथ बना रहा तो वह उसकी नीतियों और विचाारो को प्रभावित करता रहा परंतु जैसे ही वह उससे अलग हुआ तो मुख्यधारा की जनवादी राजनीति पर दक्षिणपंथी ताकतों ने अपना प्रभाव बना लिया और उसकी नीतियों और विचारों को भी प्रभावित किया।
वास्तव में अतिवादी वामपंथ का यह भटकाव मार्क्सवादी दर्शन की उसकी गलत व्याख्या से जन्म लेता है। जिसका उदय वैसे तो 40 के दशक में ही दिखाई पड़ने लगा था, परंतु इसने माओ की द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की गलत व्याख्या के साथ 60 के दशक में निर्णायक रूप से पूरी दुनिया में विस्तार करने की कोशिश की जिसका सबसे भयावह परिणाम हम इंडोनेशिया में देखते हैं। जहां कभी राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन का हिस्सा रहा वामपंथ भटक कर उसी राष्ट्रीय आंदोलन के खिलाफ खडा हुआ और 5 लाख से अधिक कम्युनिस्टों को अपने प्राण गंवाने पड़े। दरअसल कम्युनिस्ट आंदोलन की भारत में फूट केवल संसदीय लोकतंत्र में विश्वास और अविश्वास से कहीं आगे है। भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन को कई बार तोड़ने वाली यह सोच वो है जो मार्क्सवादी दर्शन की गलत व्याख्या करती है और एकता और संघर्ष को सिद्धान्त को केवल विरोधाभास कहकर गलत और भटकाव की राह चुनती है। यह मार्क्सवादी गलत व्याख्या और उसको अराजक एवं अव्यवहारिक ढ़ंग से क्रियान्वित करने का मामला है और जो आखिरकार अपनी संक्षिप्त जीत को बचाने के लिए तमाम दक्षिणपंथी, प्रतिक्रियावादी और अराजक हथकण्ड़ों का सहारा लेती है। यह खुले रूप अपनी जाति की गौरवशाली उद्घोषणाएं करता है, अन्ना आंदोलन के मंचों पर कूदता है, दक्षिणपंथी छात्र संगठन को छोड़कर अपने बिरादराना वामपंथी छात्र संगठनों को निशाना बनाता है, आम आदमी आंदोलन की विचारहीनता के साथ एकाकार होना चाहता है, संघी लव जेहाद के अल्पसंख्यक संस्करण का घिनौना प्रचार करता है और साड़ी में लिपटी किसी अल्पसंख्यक लड़की की तस्वीरों को लहराकर इतराता है। परंतु सवाल यह है कि क्या जेनयू जैसी तार्किक आधुनिकता का गढ़ इस संकीर्णता के बोझ को अधिक समय तक ढ़ो सकता अथवा इस लाल जीत के घटते हुए अंतर को ओर छोटा करते हुए आने वाले समय में इस तथाकथित वामपंथ को आत्मचिंतन के लिए विवश करेगा। जेनयू बाकी देश से इसीलिए अलग है कि उसकी प्रगतिशीलता उपरी और सतही नही है। उसकी तार्किक प्रगतिशीलता विचार आधारित है और यह विचार के प्रतीक संगठन की जीत के लिए दक्षिणपंथी हथकण्ड़ों को औजार बनाने की रणनीति को अधिक दूर तक जाने भी नही देगी। वैसे अभी भी अपने आंतरिक कारणों से अलग अलग खड़े हुए वामपंथी छात्र संगठन एक साथ आकर खड़े हो तो इसका जवाब जल्दी ही दिया जा सकता है।

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