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गुरुवार, 2 अक्तूबर 2014

साजिश का गीत सुनो!

..............महेश राठी

काश,
ऐसा हो पाता
मेरी हथेलियों की रेखाओं,
उंगलियों के हरेक पोर में,
समा जाती तुम्हारी झाड़ू की तीलियां!
मैं,
बुहार सकता उससे हर गंदगी!
काश,
मैं रोक सकता
अभी तक भी मेरे कानों में गूंजती,
बचती, भागती बेबस औरतों की गुहार,
मासूम बच्चों की चीत्कार,
लाशों के बीच मुर्दा बने,
लाचार मर्दों की बेचारगी की कराह!
काश,
मैं तुम्हारे माथे से मिटा पाता
जले घरों की कालिख से लिखी इबारत,
या,
बुहार कर निकाल ही लेता
अचानक निकल आये दर्जनों कंकालों की,
मौत की वजह!
काश,
मैं कभी झाड़ पाता
तुम्हारी सहानुभूति और दर्द को दबा चुके
सत्ता के लालच को!
काश,
मैं बुहार पाता
खौफ, रंज और अनंत आक्रोश में डूबी,
वो शरणार्थाी शिविरों की यादें,
जिन्दगी,
जहां बचकर भी खत्म हो चुकी थी!
काश,
मेरी झाड़न सक्षम होती
तुम्हारी उंगलियों के नाखूनों में फंसे,
गोश्त के कतरों,
लहू की बूंदों को झाड़ पाने में
तो,
मैं देख पाता
तुम्हारी झाडू की तीलियों से
झड़कर आती नई भोर की किरणें!
काश,
प्रेम, सद्भाव, सहिष्णुता और दर्द के रिश्तों वाली
मेरे ‘‘बापू‘‘ की विरासत को
तुम्हारी सफाई से कोई खतरा न होता!
तो,
मैं तुम्हारे तमाशे को
किसी साजिश का गीत न समझता!

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