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मंगलवार, 31 मार्च 2015

एक पटकथा का सोचा समझा अंत

महेश राठी
जन आंदोलन से पैदा हुई नई राजनीति के घमासान के लिए  एक पहले से लिखी गई पटकथा का सोचा समझा अंत हो गया। यह राजनीति अभी भी विलक्षण और अदभुत होने का दावा कर सकती है परंतु वैचारिक विविधता, मतांतर और विरोध को सहन करने की मौलिक लोकतान्त्रिक विशेषताओं से इतर केवल एक व्यक्तिवादी और एकतारूपतावादी राजनीति के रूप में। यह सूचना युग  की जन आकांक्षाओं की मौलिक वाहक होने का दम भरने वाली पार्टी को भारी जीत से मिली हार है। नई राजनीति के प्रयोग  की यह ऐसी विफलता है जिसका कोई एक व्यक्ति अथवा समूह नही वरन् इसके सभी दोषी हैं परंतु इसका भुगतान देश के हर उस आम आदमी और उसकी बदलाव की उम्मीदों को करना होगा।
वास्तव में यह राजनीति के व्यक्तिवादी और सांगठनिक वर्चस्व के बीच का भी संघर्ष है और इसमें व्यक्तिवाद को हवा देने के लिए केवल अकेले अरविंद केजरीवाल ही दोषी नही है। प्रशांत भूषण लेकर योगेन्द्र यादव सहित सभी इस राजनीतिक भूल के लिए जिम्मेदार हैं। आम आदमी पार्टी से जुड़े सभी आम और खास नेता ने अरविंद केजरीवाल को अपने चेहरे के रूप में पेश करते हुए राजनीति की है। सामाजिक और राजनीतिक संक्रमण के इस दौर में यह कोई अस्वाभाविक घटना भी नही है। ठीक इसी स्थिति का सामना देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस भी कर रही है। कांग्रेस उपाध्यक्ष ठीक इसी तर्क के साथ वनवास पर हैं। राहुल गांधी का भी कहना है कि जब प्रत्येक हार का जिम्मेदार मैं हूँ तो संगठन के सारे निर्णय मैं क्यों नही करूंगा अथवा सब कुछ मेरी मर्जी से क्यों नही चलेगा। दरअसल इन स्थितियों के लिए यदि हमारा सांमती परंपराओं वाला समाज जिम्मेदार है तो वहीं वे  बुद्धिजीवी इसके लिए सबसे अधिक जिम्मेदार हैं जो राजनीति तो एक व्यक्ति को नायक बनाकर करना चाहते हैं परंतु लाभ की हिस्सेदारी संगठन के नाम पर सामूहिक रूप से बांटना चाहते हैं। संक्रमणकाल की विशेषता यदि नये विचारों और रूझानों की सकारात्मकता और रचनात्मकता है तो विड़म्बनाऍ भी उसका ही भाग होती हैं और विड़म्बनाओं से पार पाकर रचनात्मकता को बचाने वाला व्यक्ति ही विरला अथवा महापुरूष बनता है, परंतु यह देश की राजनीति का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि अरविंद केजरीवाल इस परीक्षा में आम आदमी ही रहे।
आम आदमी पार्टी से  प्रशांत भूषण, योगेन्द्र यादव , प्रो- आनन्द कुमार और अजित झा की विदाई कोई अप्रत्याशित घटना नही है परंतु इनकी विदाई का तरीका इस नई राजनीति की कथनी और करनी में अंतर को रेखांकित करता है। पारदर्शिता और आंतरिक जनवाद को लेकर शुरू हुई राजनीति स्थापित और परंपरागत राजनीति का कुरूप चेहरा बनकर सामने आई।  प्रशांत भूषण, योगेन्द्र यादव का पार्टी के उच्च निकाय अथवा कार्यकारिणी से निकाले जाने का अर्थ वैचारिक प्रतिबद्धताओं और बुद्धिजीवी जमात के प्रतिनिधित्व का नीति निर्धारण और उसके क्रियान्यवन से अलग हो जाना है। राष्ट्रीय राजनीति के नये प्रयोग  का ऐसा हश्र स्थापित पंरापरागत राजनीति के लिए एक सुखद अहसास और आनन्द के क्षण की तरह ही है। आप की राजनीति अब उन्हीं तर्को, बचाव, हमले और रणनीति व युक्तियों के साथ आगे बढ़ेगी जो भारतीय राजनीति के मूल्यहीन और अवसरवादी हो जाने ने गढ़े हैं। हालांकि पिछले कुछ दशकों में भारतीय राजनीति के मूल्यहीन और अवसरवादी हो जाने के बावजूद भी उसमें आपसी विश्वास बना हुआ था। तमाम वैचारिक विरोधों के बावजूद भी राजनीति किसी भी दल की हो उनमें आपसी विमर्श और आपसी विश्वास की संभावनाऐं  कभी खत्म नही हुई थी परंतु भारतीय राजनीति में इसे आम आदमी पार्टी का गुणात्मक योगदान ही कहा जायेगा कि उसने इस विश्वास की परंपरा को भी खत्म कर दिया और भारतीय राजनीति को स्टिंग और सनसनी की राजनीति में बदलकर विश्वास विश्वास की जगह ब्लैमेलिंग को राजनीति के  एक महत्वपूर्ण गुण की तरह स्थापित कर दिया है।
 प्रशांत भूषण, योगेन्द्र यादव आदि को कार्यकारिणी से बाहर किये जाने के बाद योगेन्द्र ने जिस प्रकार से फिर अपने कथन को दोहराया है कि ‘‘ना छोडेंगे, ना तोडेंगे, सुधारेंगे ‘‘ उससे एक बात तो सिद्ध होती है कि आम आदमी की यह खास तकरार यहीं थमने वाली नही है। आने वाले समय में ऐसे उमेश सिंह द्वारा जारी किये गये स्टिंग जैसे कई और स्टिंग आने बाकी हैं और यह घमासान अभी ओर लंबा खिंचेगा। इस घमासान की तैयारियों में जिस प्रकार अरविंद समूह ने अपनी सत्ता और संग ठन के संसाधनों का उपयोग किया है उससे उनकी कार्यशैली और योजना दोनों का आभास हो जाता है। अरविंद केजरीवाल अपनी साख बचाने के लिए और स्वयं इस तकरार से उपर दिखाने के कई यत्न करते रहे हैं और आगे भी वो ऐसा कर सकते हैं। परंतु राष्ट्रीय परिषद की बैठक से ठीक पहले जिस प्रकार योगेन्द्र यादव का प्रायोजित विरोध करवाया गया उससे अरविंद केजरीवाल की कथनी और करनी के फर्क का एकबार फिर पता चल जाता है। आम आदमी पार्टी के इस पूरे प्रकरण ना केवल आम आदमी बल्कि स्वयं अरविंद केजरीवाल की साख को दागदार किया है और इससे  अरविंद केजरीवाल की आक्रामक हेकड़ी (एरोगेंस) पर सवाल उठना स्वाभाविक है। सूचना अधिकार अभियान और परिवर्तन के बाद केजरीवाल के नितांत गैर जनवादी इस स्वभाव और आक्रामक हेकड़ी के कारण उनका साथ छोड़ने वाले लोगों अरूणा राॅय, अन्ना, किरण बेदी, प्रो भदुडी़ और ललिता रामदास की सूची में प्रशांत भूषण, योगेन्द्र यादव, प्रो- आनन्द कुमार और अजित झा के नाम भी जुड़ गये हैं। अरविंद केजरीवाल को यदि वास्तव में किसी राजनीतिक परिवर्तन का वाहक बनना है तो उन्हें लोकतान्त्रिक  सहिष्णुता तो सीखनी ही होगी अन्यथा उनकी हेकड़ीबाजी के कारण यह सूची अभी ओर लंबी होती जाएगी और लोकतंत्र में हेकड़ीबाजी और भीड़तंत्र का जीवन कभी ज्यादा लंबा होता नही है।  

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