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शनिवार, 12 सितंबर 2015

भारतीय संस्कृति का इतिहास, दास्तान-ए-खुसरो - 1

महेश राठी
किसी भी संस्कृति की समृद्धि और व्यापकता उसके विविधतापूर्ण चरित्र पर निर्भर करती है। परंतु संस्कृति जब एकरूपता से परिभाषित होती है तो वह फासीवाद की राह पकड़ती है। सामाजिक और सांस्कृतिक समरसता का अर्थ ही है संस्कृति के सब रसों को एक समान सम्मान देना और उन्हें समान रूप से प्रोत्साहित करना है। परंतु जब सामाजिक और सांस्कृतिक एकरूपता वाली शक्तियां  समरसता को एकरूपता का पर्याय बनाती हैं तो फासीवादी खतरे की आहट बनती है। आज भारतीय संस्कृति इन्हीं सांस्कृतिक विविधताओं को ध्वस्त करने वाले खतरों की आहट सुन रही है। भारतीय सांस्कृतिक विरासत के समक्ष तेजी से बढ़ रहे यह खतरे बहुरूपी और बहुआयामी हैं। यह खतरे गंगा जमुनी हिंदुस्तानी तहजीब को एक रंग में रंगने की कोशिश और एकरूप करने की सााजिशों को हवा दे रहे हैं। यह हिंदुस्तानी गंगा जमुनी तहजीब किसी खास धर्म की अथवा उस धर्म के इतिहास की कहानी नही है बल्कि विभिन्न धर्मों और उनके अनेकों मतांतरों की ऐतिहासिक विरासत की दास्तां है। इसमें संगीत की विभिन्न स्वर लहरियों के घुलने मिलने और उनसे हिंदुस्तानी संगीत के बनने का इतिहास है, इस हिंदुस्तानी तहजीब में अनेको दिशाओं से आये कला के रंग समाहित हैं और इसमें शामिल अनेकों बोलियों और भाषाओं से बनी हमारी बोली, हमारी भाषा और उसकी बहुरंगी मिठास। हिंदुस्तानी खान-पान से लेकर कला, संगीत, भाषा और बोली की विविधता इस खुबसूरत हिंदुस्तानी संस्कृति को तैयार करती है। भारतीय संस्कृति की यह विविधता और उसके विविध रंग ही इसके धर्मनिरपेक्ष होने का आधार बनते हैं और जब हम इस धर्मनिरपेक्ष संस्कृति के निर्माण के इतिहास की खोज करते हैं तो जो एक सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण व्यक्तित्व इस क्रम में हमारे सामने उभरता है उसका नाम है अमीर खुसरो और खुसरो की दास्तान भारतीय संस्कृति के विकास का इतिहास है।
वह अमीर खुसरो ही है जो हिंदुस्तानी तहजीब के बनने संवरने के इतिहास का पता देता है। अमीर खुसरो का वास्तविक नाम अब्दुल हसन यमीनुद्दीन था और अब्दुल हसन यमीनुद्दीन का अमीर खुसरो हो जाने में हिंदुस्तानी तहजीब के बनने और संवरने का दर्शन अन्तर्निहित भी है। इस्लामिक अद्वैतवाद में आस्था रखने वाला अब्दुल हसन यमीनुद्दीन जब भारतीय द्वैतवादी दर्शन के साथ एकाकार होता है तो विशिष्ट अद्वैतवादी अमीर खुसरो बनकर सामने आता है। दुनिया भर में प्रसिद्ध अमीर खुसरो बेशक फारसी के सर्वश्रेष्ठ साहित्यकारों में शुमार होते हों परंतु फिर भी उनकी असली पहचान हिंदुस्तानी तहजीब के एक प्रतिनिधि कवि के रूप में ही थी और यही कारण था कि ईरानियों ने उन्हें ‘तूती-ए-हिंद‘ का नाम दिया।
अमीर खुसरो का जन्म 652 हिजरी अर्थात 3 मार्च 1253 ई. में पटियाली, जिला ऐटा, उत्तर प्रदेश में हुआ। हालांकि उनके जन्म कोे लेकर और कईं अन्य धारणाएं भी हैं। परंतु देश के अधिकतर विद्वानों का यही मानना है कि उनका जन्म पटियाली में हुआ और सात वर्ष की आयु में वे दिल्ली आ गये थे। इस तथ्य को अमीर खुसरो की रचनाओं से भी बल मिलता है जिसमें उन्होंने जहां एक तरफ दिल्ली की तारीफ में दरियादिली दिखाई तो वहीं पटियाली की दुर्दशा पर दुख भी जाहिर किया।
अमीर खुसरो का पूरा रचना संसार और भारतीय संस्कृति में उनके योगदान की पृष्ठभूमि में उनके परिवार और उनके माता पिता की मिश्रित हिंदु मुस्लिम संस्कृति की बड़ी भूमिका है। दो विविध संस्कृतियों से बना यह उनका घरेलू वातावरण ही था जो उन्हें ऐसी संस्कृति के निर्माण का बड़ा रचियता बनाता है जिसमें एक तरफ जहां मध्य एशिया से आये रंगों की मिठास थी तो दूसरी तरफ भारतीय संस्कृति के लोक जीवन का देशीपन भी था। इस नई बनती हिंदुस्तानी तहजीब में जहां दो संस्कृतियों के मिलने की शर्त है तो वहीं एक नई तहजीब के बनने की अनिवार्यता भी है और साथ ही है दोनों के अपने अपने वजूद के साथ बने रहने और चलने का अनूठा अंदाज भी। इस नई तहजीब के बनने संवरने में जब हम इतिहास को खंगालते है तो हमें इसकी जड़ में एक अनूठा किरदार अमीर खुसरो की शक्ल में मिलता है। अमीर खुसरो हमारे सांस्कृतिक इतिहास का एक ऐसा अनूठा नाम है जिसको ना कोई साजिश मिटा सकती है और ना ही कोई सांप्रदायिक उन्माद उसके वजूद को छोटा कर सकता है। बहरहाल, बात अमीर खुसरो के जन्म और पारिवारिक वातावरण की है। 1220 के लगभग तुर्किस्तान में तातरियों के हमले से बचने के लिए वहां के कई परिवारों ने भारत में आकर शरण ली। इनमें से ही एक सैफूद्दीन महमूद लाचीनी का परिवार भी था। यह परिवार उस समय के पटियाली में आकर बस गया। उन्हीं के यहां 1253 ई. में अमीर खुसरो का जन्म हुआ। सैफुद्दीन महमूद शमसुद्दीन अल्तमश की शाही सेना में एक सरदार थे और उनका विवाह नवाब इमादुलमुल्क रावल की पुत्री से हुआ था। नवाब इमादुलमुल्क रावल एक नव मुस्लिम थे जिन्होंने हाल ही में इस्लाम कबूल किया था और यही कारण था कि उनके परिवार के सभी रीति रिवाज हिंदुओ जैसे ही थे। खुसरो की मां पंरपरागत हिंदू रीति रिवाजों में पली बढ़ी महिला थी और यही दो विभिन्न संस्कृतियों का ज्ञान और उनका प्रभाव अमीर खुसरो की जिंदगी के हरेक कदम पर दिखाई पड़ता है। अमीर खुसरो के जीवन पर इस सांझी संस्कृति ने एक दुखद दुखद घटना के कारण भी काफी असर छोड़ा। अमीर खुसरो के पिता की उनके बाल्यकाल में मृत्यु हो गयी जिस कारण उनके पालन पोषण का दायित्व उनके नाना नवाब इमादुलमुल्क रावल ने संभाला।
अमीर खुसरो ने 12 साल की उम्र से शायरी करना शुरू कर दिया था और शुरूआती दौर में सुल्तानी तख्ल्लुस के साथ शायरी की और अपने पहले दिवान ‘‘तोहफ्तुस्सिगर‘‘ में इसी तख्ल्लुस का इस्तेमाल किया। अपनी शायरी में पहले उन्होंने फारसी के कुछ शायरों का अनुसरण करने की कोशिश की और शुरूआती दौर में उन पर शेख सादी, निजामी, खाकानी और सनाई का असर देखा भी जा सकता है। उनके अध्यात्मिक गुरू हजरत निजामुद्दीन औलिया थे और वे रोज बेनागा उनके दरबार में हाजिरी देते थे। उनका दिन जहां अपने जीवन यापन के लिए बादशाह के दरबार में गुजरता था तो वहीं उनकी शाम हजरत निजामुद्दीन के दरबार में गुजरती थी। हजरत निजामुद्दीन का उनसे प्रेम इस कदर गहरा था कि वे कहा करते थे कि जब खुदा उनसे पूछेगा कि निजामुद्दीन मेरे लिए क्या लाए हो तो मैं अमीर खुसरो का पेश कर दूंगा। हजरत निजामुद्दीन अमीर खुसरो का तुर्क कहकर पुकारते थे। अमीर खुसरो ने 1273 में अपने नाना की मृत्यु के बाद अपने भरण पोषण के लिए कई बादशाहों और नवाबों के दरबार में शायरी की और वे केवल एक शायर ही नही, एक योद्धा भी थे। उन्होंने बुगरा खां के साथ बलबन के पक्ष में बंगाल के बागी प्रशासक तुगरिल के खिलाफ लड़ाई में भाग लिया।
अमीर खुसरो का हिंदुस्तानी तहजीब में योगदान केवल शायरी ही नही उनके भाषाई प्रयोगों, उनके संगीत के क्षेत्र में योगदान से बनता है। उनके इसी योगदान ने उन्हें बनती हुई नई भाषा हिंदवी का पहला लोकप्रिय कवि बनाया तो वहीं काव्य और संगीत में उनके नये प्रयोगों ने नई संस्कृति की ऐसी खुबसूरत इबारत लिख डाली जो आज भी हमारे सांस्कृतिक जीवन का हिस्सा है। दूसरी कलाओं को अपनाकर नई विधाओं को तैयार करने की अमीर खुसरो की इस बेजोड़ प्रतिभा को हम बलबन की जीत के बाद उनके मुल्तान में प्रवास के दौरान देख सकते हैं। अमीर खुसरो बंगाल में बलबन की जीत के बाद बलबन के बेटे सुल्तान महमूद के साथ मुल्तान चले गये। मुल्तान पंजाब और सिंध दोनों का केन्द्रीय स्थान था और अरब एवं ईराक से आने वाले संगीतज्ञों, कवियों और सूफी संतों का आश्रय स्थल भी था। इस जगह का अमीर खुसरो पर काफी गहरा प्रभाव पड़ा और यहीं उन्होंने पंजाबी भाषा की रंगीन मिजाजी को अपनी काव्य रचनाओं में जगह दी और अरबी और तुर्की साजों का उपयोग पंजाब के लोकगीतों के लिए किया। अमीर खुसरो यहां पांच साल रहे और चंगेजों के हमले के दौरान उन्हें चंगेजों द्वारा बंदी बना लिया गया और वे किसी तरह यहां से बचकर दिल्ली पहुंचे। बलबन के बेटे मुहम्मद की मौत पर उन्होंने बेहद दर्दनाक मर्सिया लिखा और कहा जाता है कि उसे सुनकर सुल्तान बलबन इतना रोए कि उन्हें बुखार हो गया और तीसरे दिन ही उनकी मृत्यु हो गई।
अमीर खुसरो और हिंदी भाषा
खुसरो ने अब अमीर अली सर जानदार की नौकरी कर ली और वे अवध चले आये। अवध में खुसरो ने दो साल का वक्त गुजारा और यही उनका परिचय अवधी भाषा के रूप में एक लोचदार भाषा और भाषाई लोच से हुआ। अब उनकी भाषा में अवधी के अलावा ब्रज, देहलवी, पंजाबी और बंग्ला की चाश्नी थी और उनकी यही भाषाई चाश्नी एक नई भाषा हिंदवी का आधार तैयार कर रही थी। खुसरो ने इस भाषा को हिंदवी अथवा देहलवी का नाम दिया और उन्होंने सबसे बड़ा काम यह किया कि इस भाषा में काव्य रचना की और इसे एक बोली से आगे निकलकर एक साहित्यिक भाषा बनाने की कोशिश की। परंतु किन्ही कारणों से उन्हें इसमें कामयाबी हासिल नही हुई परंतु यह भी सच्चाई है कि यही भाषा कई सौ सालों तक बहमनी, आदिलशाही और कुतुबशाही राज्यों में दक्खिनी के रूप में प्रचलित रही और दक्खिनी का  विकसित रूप जब फिर से उत्तर भारत लोटकर आया तो यह उत्तर भारत में सर्व स्वीकार्य खडी बोली के रूप में तेजी से प्रचलित हुई। इस प्रकार एक तरह से आज की हिंदी और उर्दू की नींव अमीर खुसरो ने रख दी थी। आज हमारे देश के संविधान की स्वीकृत राजभाषा और पाकिस्तान की राजभाषा उर्दू इसी खडी बोली की नींव पर खड़ी है।
खुसरो की रचनाओं में हालांकि हमें ब्रज भाषा का भी प्रयोग मिलता है परंतु खडी बोली का प्रयोग पहली बार खुसरो की पहेलियों, सुखनों और निस्बतों आदि में ही दिखाई पड़ता है। कर्ता के साथ ‘ने‘ का प्रयोग करके उन्होंने इस भाषा को एक अलग और नई पहचान दी।
‘‘बात की बात ठिठोली की ठिठोली
मरद की गांठ औरत ने खोली‘‘
खुसरो ने अपने भाषा सर्वेक्षण में दिल्ली के आसपास जिस भाषा के प्रयोग होने का हवाला दिया है वही उनकी काव्य भाषा है। उस समय तक खड़ी बोली अथवा ब्रज भाषा जैसे शब्दों की रचना नही हुई थी। उसके बावजूद भी उनकी भाषा खडी बोली है जिसमें ब्रज भाषा का पुट है।  उनका अपनी इस मातृभाषा के प्रति लगाव इतना गहरा था कि वे अपनी फारसी रचनाओं में भी हिंदी शब्दों का प्रयोग करने से नही चूकते थे।
अमीर खुसरो फारसी भाषा के विश्व विख्यात साहित्यकार थे। विश्व के फारसी साहित्य के इतिहास में अमीर खुसरो के नाम का कोई जोड़ नही है। ना केवल फारसी साहित्य की श्रेष्ठता के मामले में बल्कि गिनती के मामले में भी कोई उनके बराबर पूरे फारसी साहित्य की दुनिया में नही है। उन्होंने तीन लाख से अधिक और चार लाख से कुछ कम शेर लिखे। उनकी फारसी रचनाएं हिंदुस्तान से ज्यादा विदेशों में सुरक्षित हैं। उनके बारे में मौलाना शिबली नौमानी अपने ग्रन्थ ‘शैरूल अजम‘ में लिखते हैं कि हिंदुस्तान के छह सौ बरस के इतिहास में आज तक इस दर्जे का जामे-कमालात (उत्कृष्ठताओं से परिपूर्ण) पैदा नही हुआ। यहां तक कि गालिब भी अपनी शायरी की मिठास और खुबसूरती के लिए खुद को खुसरों का ही कर्जदार मानते हैं और कहते हैं कि मेरी शायरी में ये मिठास क्यों नही हो मैं इस रस के लिए खुसरो के पांव धोकर पीता हूँ : 
‘‘गालिब मेरे कलाम में क्योंकर मजा ना हो
पीता हूँ धोके खुसरूए शीरीं सुखन के पांव‘‘।
अमीर खुसरो को अपने हिंदुस्तानी होने पर गर्व था और वे अपनी मातृभाषा में काव्य रचना को भी अपना धर्म समझते थे। अपने दीवान गुरर्तुलकमाल की भूमिका में वे लिखते हैंः
‘‘तुर्क हिन्दुस्तानियम मन हिन्दवी गोयम जवाब
शक्र मिस्री नदारम कज़् अरब गोयम सुखन‘‘।
अर्थात मैं हिंदुस्तानी तुर्क हूँ और हिंदवी में जवाब देता हूँ। मेरे पास मिस्र की शुक्र नही कि मैं अरबी में बात करूं। इसी क्रम और इसी दीवान में वे आगे लिखते हैं-
 चूं  मन तूती-ए-हिन्दम अर रासत पुर्सी
ज़्ामन हिन्दवी पुर्स ता नग्ज़्ा गोयम।
माने अगर सही बुझो तो मैं हिंदुस्तान की तूती हूँ। अगर तुम मुझसे मीठी बातें करना चाहते हो हिन्दवी में बात करो। फारसी के महान साहित्यकार होने के बावजूद जहां अमीर खुसरो ने हिन्दवी को एक लोकप्रिय भाषा होने की नींव रखी तो उनको खुद भी हिन्दवी से ही अधिक प्रसिद्धि हासिल हुई। हालांकि अमीर खुसरो हिन्दवी के पहले सबसे लोकप्रिय कवि हुए परंतु उनसे डेढ़ सौ साल पहले मसउद साअद सुलेमान (1054-1131) हिन्दवी के पहले ज्ञात कवि थे जिन्होंने तीन दीवान लिखे एक अरबी, एक फारसी और एक हिंदी में।
अमीर खुसरो निर्विवाद रूप से हिन्दवी के पहले लोकप्रिय कवि थे परंतु यह दुर्भाग्य की बात ही है कि उनकी सारी हिन्दी रचनाएं संगृहीत और सुरक्षित नही हैं। उनका जितना भी हिंदी साहित्य है वह लोगों की जबान पर और लोक सुलभ काव्य रचनाएं ही हैं। अभी तक उनकी प्राप्त रचनाओं में सबसे अधिक संख्या उन रचनाओं की है जो बर्लिन के स्प्रंगर संग्राहलय में प्राप्त हुई और डाॅ. गोपी चंद नारंग ने उन 150 पहेलियों को प्रकाशित किया। स्प्रंगर ने भी ये पहेलीहाय हिंदी 1763 में अवध के पुस्तकालय प्राप्त की थी। भारत में लोगों ने खुसरो की पहेलियां और गीतों को पीढ़ी दर पीढ़ी मुंह जबानी याद करके सुरक्षित रखा है। अमीर खुसरो की रचनाओं की यही सुलभता बताती है कि वे कितने लोकप्रिय कवि थे। अमीर खुसरो के यूं जन मानस में बने रहने का सबसे प्रमुख कारण उनकी रचनाओं का हिंदुस्तानी लोक जीवन से सीधा जुड़ाव हैं, उन्होंने अपनी रचनाओं में हिंदुस्तानी जन जीवन, तीज त्योहार, शादी-विवाह, मेले, हाट-बाजार ग्राम और शहरी जीवन के हर पहलू का वर्णन किया है।
अमीर खुसरो का हिंदी के विकास में महत्वपूर्ण और अमिट योगदान है। वे ऐसे पहले कवि थे जिन्होंने जनभाषा की खड़ी बोली को अपने काव्य का माध्यम उसके रचने की भाषा बनाया। डाॅ. रामकुमार वर्मा अपने हिंदी साहित्य के आलोचनात्मक इतिहास में लिखा है कि अमीर खुसरो जन साधारण की खडी बोली को साहित्यिक रूप देने में सबसे पहले सफल हुए। यह एक ऐसा समय था जब न तो ब्रज भाषा का कोई नाम था और ना ही उर्दू जैसी को अलग भाषा थी। उन्होंने यही सबसे बड़ा काम किया कि उन्होंने स्थापित काव्य मानको को तोड़ते हुए खडी बोली में काव्य रचना की। उनकी कोई ऐसी व्यापक हिंदी काव्य रचनाएं उपलब्ध नही हैं फिर भी अमीर खुसरो ने ऐसा काव्य रचा जो पिछले सैंकड़ों सालों से जन सामान्य के जीवन के साथ एकाकार हो चुका है। उन्होंने आज से सात सौ साल पहले जिस भाषा शैली की नींव डाली वर्तमान हिंदी और हिंदी साहित्य उसी की देन है।
उनकी हिंदी रचनाओं में से लगभग चार सौ अंश ही आज उपलब्ध हैं। जिन्हें तीन भागों में बांटा जा सकता है। 1. साहित्यिक स्वरूप की रचनाएं 2. लोक रूचि की रचनाएं और खालिकबारी कोष।
अमीर खुसरो का सबसे प्रमाणिक दोहा जिसे प्रत्येक वर्ष ख्वाजा हजरत निजामुद्दीन ओलिया के उर्स के मौके पर गाया जाता है-
‘‘गौरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस
चल खुसरो घर आपने रैन भई चहुँ देस‘‘।
दूसरा एक अन्य दोहा जो परंपरागत ढ़ंग से अमीर खुसरो का ही माना जाता है-
‘‘खुसरो रैन सुहाग की जागी पी के संग
तन मेरो मन पीव को दोउ भए इक रंग‘‘।
इसके अलावा अमीर खुसरो ने फारसी मिश्रित हिंदी छंद भी लिखे। बल्कि उनकी गजलों में होने वाले हिंदी शब्दों के प्रयोग से पता चलता है कि वे ऐसे पहले कवि थे जिन्होंने गजल के लिए हिंदी शब्दों का उपयोग किया अर्थात सात सौ साल पहले ही हिंदी गजल लिखे जाने का संकेत दे दिया था। अमीर खुसरो की एक गजल बेहद मशहूर है जिसका एक मिसरा फारसी में और दूसरा हिंदी में हैः-
‘जे हाले मिस्कीं मुकुन तगाफुल, दुराएं नैंना बनाएं बतियां,
किताबें-हिजरा न दारम ऐ जां, न लेहु काहे लगाए छतियां।
शबाने हिजरां दराज चूं जुल्फो - रोजे वसलत चूं उम्र कोताह।
सखी पिया को जो मैं न देखंू तो कैसे कांटू अंधेरी रतियां।। (जारी....)

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