सारी शक्तियों को प्रधानमंत्री कार्यालय में सीमित रखने के पागलपन में और प्रत्येक चीज में निरंकुश होने के मोदी के प्रयासों से स्वतंत्रता के बाद इतने सालों में बना हमारा लोकतांत्रिक ढ़ांचा गंभीर खतरे में है। दिल्ली सचिवालय पर सीबीआई के छापे और मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के कार्यालय की तलाशी और उसे सील करना केवल देश के संविधान में सम्माहित संघीय सिद्धांतों का उल्लंघन ही नही है बल्कि लोकतंत्र को तबाह करने के उस खतरनाक खेल का हिस्सा है जिसे प्रधानमंत्री पदासीन होने के पहले दिन से ही कर रहे हैं।
भाकपा की 2015 मार्च में पुडुचेरी में संपन्न पार्टी कांग्रेस में पारित राजनीतिक प्रस्ताव ने अनेकों शब्दों में इस बारे में सावधन किया था कि मोदी हिंदुत्व और काॅरपोरेट पंूजी के लिए प्रतिबद्ध एक तानाशाह किस्म की मानसिकता के आदमी हैं जो देश के धर्मनिरपेक्ष जनवादी ढ़ांचे को तबाह करने के लिए जो भी संभव होगा कर सकते हैं। यह एक फासीवादी कब्जे की राह प्रशस्त करेगा। पिछले 19 महीनों में उनके सभी काम और कार्रवाईयों ने इन अटकलों को पुख्ता किया है।
मंख्यमंत्री के रूप में गुजरात में मोदी ने कभी भी राज्य विधायिका को सामान्य ढंग से काम नही करने दिया। ना केवल विधानसभा के समय में कटौती की बल्कि उन्होंने विधानसभा से अनुपस्थित रहने का एक कीर्तिमान भी बनाया। वे अपने वफादार गुट के माध्यम से काम करने को प्राथमिकता देते हैं। वहां भाजपा अध्यक्ष इस गुट के सरगना थे। उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर भी उसी शैली से काम करना जारी रखा है। यदि उनके तानाशाही शासन के लिए प्रमुख औजार प्रतिद्वन्द्वियों की मुठभेड़ और हत्या था, जिसमें उनकी पार्टी के वो लोग भी शामिल थे जो उनसे असहमति रखते थे तो राज्यों के प्रति सभी प्रकार के दमनकारी काम और ब्लैकमेलिंग भी एक मुख्य औजार है जिसका उन्होंने खुलेआम इस्तेमाल किया। यहां तक कि बिहार चुनाव की शर्मिंदगी के बाद पार्टी के भीतर भी वरिष्ठों के उठते चिंता के स्वरों को दबाने के लिए इसी ताकत का इस्तेमाल किया गया।
ब्लैकमेल करने के कईं मामले हैं, विशेषकर उन राजनीतिक दलों के जिन्होंने अभी तक भी एनडीए के सामने समर्पण नही किया है। हम सभी जानते हैं कि लगभग सभी पंूजीवादी राजनीतिक दलों के नेता सत्ता में रहते हुए भ्रष्टाचार के मामलों में लिप्त रहे हैं। बाद में नये सत्ताधारी गठबंधन ने उन नेताओं को ब्लैकमेल करने के लिए ऐसे मामलों की जांच शुरू की है। यह यूपीए-2 के समय में भी हुआ है। परंतु नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली वर्तमान सरकार की यह पहचान बन गई है।
दिल्ली सरकार के सचिवालय पर छापे का विवाद भी ठीक उसी प्रकार का आभास दे रहा है। माना गया कि एक आईएस अधिकारी ने एक दशक पहले कोई अपराध किया था और उससे संबंधित विभाग को तलाशने की जगह मुख्यमंत्री के कार्यालय को निशाना बनाया गया। केजरीवाल का आरोप है कि सीबीआई असल में दिल्ली क्रिकेट एसोसिएशन में अरूण जेटली के कार्यकाल में हुई अनियमितताओं और भ्रष्टाचार की जांच रिपोर्ट के लिए आयी थी। इसमें शामिल धनराशि सैंकड़ों करोड़ रूपये में है। जाहिर है कि मोदी सरकार दिल्ली के शासकों को उसी चाल से निःशस्त्र करना चाहती थी जिससे वह कांग्रेस सहित अपने कईं विरोधियों को करती रही है।
कोई नही जानता कि वर्तमान विवाद क्या रूप लेगा, परंतु एक बात साफ है कि इसके परिणाम हमारे संघीय ढ़ंाचे के लिए बहुत गंभीर होंगे और यह आखिरकार हमारे लोकतंत्र के लिए खतरे तक जायेगा।
दुर्भाग्यवश, लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माने जाने वाले मीड़िया को उन ताकतों ने पूरी तरह से अपने कब्जे में ले लिया है जिनके हितों को यह वर्तमान सरकार पूरा कर रही है। देश के सामने मौजूद असली खतरों को लेने की बजाए यह सरकार जनता का ध्यान उनकी असली प्रमुख समस्याओं से हटाने वाले की भूमिका अदा कर रही है। देश की अर्थव्यवस्था संकट में है। सभी आर्थिक संकेतक गिरावट दिखा रहे हैं। अभूतपूर्व कीमत वृद्धि जनता पर नये बोझ लाद रही है। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र की मामूली सी सुविधाएं भी जनता से छीनी जा रही हैं। वास्तविक आय में गिरावट आई है। पर इन सवालों पर कोई ध्यान नही है। कोई इसे उनके वर्ग रूझान की तरह पेष कर सकता है परंतु मोदी सरकार के संघवाद और धर्मनिरपेक्ष जनवाद के बुनियादी पहलूओं को तबाह करके एक व्यक्ति की तानाशाही को थोपने के दांव को नजरअंदाज करना और जानबूझकर उसे साइड ट्रेक करना एक प्रकार का अपराध होगा जिसकी पूरे देश को भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।
यह वो समय है जब हमें मोदी सरकार द्वारा थोपे जा रहे इस असली खतरे को समझना होगा और समय पर इसका प्रतिरोध करना होगा।
(शमीम फ़ैज़ी - संपादकीय मुक्ति संघर्ष)
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