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गुरुवार, 26 मई 2016

जीत के झूठ से नही दबेगा हार का संदेश

महेश राठी
हार पर जीत की तरह के ढ़ोल बजाते हुए इतराना सांप्रदायिक, फासीवाद और राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय वित्त पूंजी के गठजोड़ की नई रणनीति है। यह भाजपा और उसके साथियों के जनाधार के लगातार खिसकते जाने के सवालों से बचने और हार को जीत जैसा दिखाकर अपनी जन विरोधी और देश के लिए घातक नव उदारवादी आर्थिक नीतियों की विफलताओं और उसकी हार पर पर्दा डालने की कोशिश भर है। संघ, भाजपा और कारपोरेट गुलामी करने वाला उसका समर्थक भगवा मीड़िया भाजपा की जीत के कुछ भी ढ़ोल पीटे परंतु वास्तविकता यह है कि आम चुनाव 2014 के बाद से लगातार भाजपा का जनाधार घट रहा है। अभी की उसकी असम में जीत राज्य में विपक्षी वोटों के बंटवारे और परस्पर विरोधी विचारों वाली भाजपा, अगप और बौड़ोलैंड पीपुल्स पार्टी के अवसरवादी गठजोड़ का परिणाम है।
भाजपा को जहां असम में असम गण परिषद और बोडो के साथ गठबंधन के बावजूद महज 29.5 प्रतिशत वोट मिला है तो वहीं कांग्रेस अभी भी 31 प्रतिशत वोट हासिल करके वोट प्रतिशत के मामले में पहले स्थान पर है और यदि सरकार में उसके पूर्व सहयोगी एआइयूडीएफ और अन्य धर्मनिरपेक्ष और जनवादी वोटों को भी इसमें जोड़ दें तो यह 45 प्रतिशत से भी अधिक होता है। इसके अलावा बारखेत्री, बारचला, बारपेटा, बिजनी, बिलासीपारा ईस्ट, गोलारगंज, गोसाईगांव, हाजो, करिगोरा, लाडिंग, मंगलदई, नाहरकटिया, नौगौंग आदि जैसी कम से कम 22 सीटें ऐसी हैं जहां अभी भी कांग्रेस और उसकी पूर्व सहयोगी एआईयूडीएफ को मिले वोटों की संख्या भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियों के मिले वोटों से कहीं अधिक है।
इसके सथ ही यदि भाजपा को वर्तमान चुनावों में मिले वोटों की तुलना 2014 की उसकी उस समय में मीड़िया एवं कारपोरेट मैनेज तथाकथित आंधी से की जाए तो मीड़िया की मोदी भक्ति और भगवा गान की असलियत सामने आ जाती है। असम में 2014 में भाजपा को 36.86 प्रतिशत वोट मिले थे तो वहीं इस चुनाव में गठबंधन के बावजूद उसे महज 29.5 प्रतिशत वोट ही मिले हैं अर्थात 7.36 प्रतिशत वोटों का शुद्ध घाटा। वोटों के बंटवारे से मिली जीत का एक अन्य दिलचस्प पहलू यह भी हैं कि भाजपा और उसके सहयोगी जिन सीटों पर हारे हैं उनमें से बीस से अधिक ऐसी सीटें हैं जिनमें वे तीसरे और चौथे स्थान पर रहे हैं। इसका अर्थ साफ है कि केवल कुछ क्षेत्रों में अपनी मजबूत उपस्थिति और बाकी क्षेत्रों में वोटों के दम ही यह जीत भाजपा ने हासिल की है अर्थात भाजपा गठबंधन ने 2014 के बाद ना केवल अपना जनाधार खोया है बल्कि कोई नये इलाके भी उसमें अपने जानाधार में नही जोड़े हैं।
प. बंगाल में भी भाजपा को आम चुनावों में 17.2 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे परंतु अभी उसे कुल 10.2 प्रतिशत वोट ही मिले हैं अर्थात कुल 7 प्रतिशत का उसे घाटा हुआ है। इसी कारण जहां भाजपा ने लोकसभा में 2 सीटों पर जीत दर्ज की थी तो उसे विधानसभा में केवल तीन ही सीटें हासिल हुई हैं। तमिलनाडु और पुडुचेरी में भाजपा नीत गठबंधन के प्रदर्शन का हाल इतना खराब है कि वो असम के शोर में इन राज्यों में अपने प्रदर्शन को छुपा देना चाहता है। तमिलनाडु में उसे आम चुनावो में जहां 5.56 प्रतिशत वोट मिले थे तो विधानसभा में उसका वोट प्रतिशत गिरकर आधा अर्थात 2.8 प्रतिशत ही रह गया है। केवल इतना ही नही है बल्कि राज्य में वह निरंतर चौथे और पांचवे और उससे भी नीचे स्थान पर आने वाला गठजोड़ भर बनकर रह गया है। उसकी सहयोगी पार्टी इंड़िया जननायक पार्टी तो अक्सर सातवे से लेकर 15 वें स्थान तक दिखाई पड़ती रही अैर यहां तक कि उसे पांच सौ वोट तक भी प्राप्त करना  मुश्किल हो गया। ऐसा नही है कि दुनिया की स्वयंभू सबसे बड़ी पार्टी की स्थिति कोई खास अच्छी रही हो उसने भी दक्षिण के राज्यों में ऐसी दुगर्ति का सामना किया है जिसे वह असम की जीत के शोर में दबाकर अपने जन विरोधी कारनामों को आगे बढ़ाना चाहती है। भाजपा की जीत का यह ढ़ोल उस समय निरा हास्यास्पद लगता है जब आंकड़े दिखाते हैं कि भाजपा तमिलनाडु में कम से कम 28 सीटों पर छठे से आठवें स्थान पर रही और भुवनगिरी ;910 वोट, चेंगम ;884 वोट, कट्टूमनक्कदोईल ;884 वोट, उत्थीरामेरूर ;786 वोट में उसे चार अंकों अर्थात एक हजार वोट पाने के लिए भी ऐडी चोटी का जोर लगाना पड़ा। संभवत भाजपा तमिलनाडु और पुडुचेरी में सबसे ज्यादा जगहों पर जमानत जब्त कराने वाली राष्ट्रीय पार्टी बनकर उभरी है। सबसे बुरा हाल भाजपा का पुडुचेरी में हुआ जहां कांग्रेस ने सत्ता में वापसी की है। पुडुचेरी पर भाजपा भक्त मीड़िया की खामोषी के कई कारण है, एक यह उसकी कांग्रेस मुक्त भारत की मुहिम को भाजपा मुक्त भारत में बदल सकता है और दूसरे इस केन्द्र शासित राज्य ने ऐसी शर्मनाक हार का नमूना भाजपा को दिखाया है कि उसे जहां तमिलनाडु में कईं जगह एक हजार वोटों के लिए जुझना पड़ रहा था तो पुडुचेरी में कुछ जगह उसके लिए सौ वोट पाना भी असंभव हो गया था। पुडुचेरी में भाजपा अधिकतर जगहों पर चौथे से लेकर नौवें स्थान पर रही है और वो भी कुल ग्यारह उम्मीदवारो में नौवें स्थान पर। पुडुचेरी में उसे सौ, दो सौ और तीन सौ वोट पाने के लिए कसरत करनी पड़ी है। बहोर (79 वोट), त्रिवाल्लार (52 वोट), औपलम (113 वोट) और एम्बालम (107 वोट) जैसी सीटों पर उसे सौ वोट के लिए ही पूरी कसरत करनी पड़ी है। इतने खराब नतीजों के बावजूद भी भाजपा का जीत का ढ़ोल बता देता है कि खोखले वादों और झूठ के आंकड़ों पर टिकी राजनीति कारपोरेट नियन्त्रित मीड़िया के साथ मिलकर क्या खेल कर सकती है।
केरल में भाजपा ने थोड़ी प्रगति की है परंतु वह भी नाममात्र का ही इजाफा है आम चुनावों में भाजपा को केरल में 10.45 प्रतिशत वोट मिले थे परंतु इस विधानसभा चुनावों में उसे 10.50 प्रतिशत वोट मिले हैं अर्थात उसका कुल फायदा .05 प्रतिशत का है। परंतु देश का मीड़िया इन नतीजों को इस प्रकार पेश कर रहा है मानों हर जगह संघी गिरोह ने सरकार बना ली है या बनाने जा रहा है। मानो हर शपथ ग्रहण मोदी की पार्टी का शपथ ग्रहण समारोह है।
यदि इन पांच राज्यों में भाजपा के कुल प्रदर्शन को देखें और उसकी तुलना 2014 के आम चुनावों से करें तो भाजपा की जीत की सारी असलियत सामने आ जाती है। इन पांच राज्यों में 2014 के आम चुनावों में भाजपा द्वारा लड़ी गई संसदीय सीटों के तहत आने वाली विधानसभा सीटों की संख्या 590 थी, जिसमें से उसने 104 विधानसभा सीटों पर बढ़त हासिल की थी परंतु 2016 में उसने कुल 661 सीटों पर अर्थात 2014 की तुलना में 71 अधिक सीटों पर चुनाव लड़ा है, परंतु उसने इन 661 सीटों में से केवल 64 सीटों पर जीत हासिल की है। जिसमें 60 असम 3 पं. बंगाल और 1 सीट केरल में है। जाहिर है भाजपा की पांच राज्यों की हार उसके जीत के षोर से कहीं अधिक बड़ी है और उसे छुपाया नही जा सकता है। भाजपा और उसके सहयागियों की यह हार उनकी विफलताओं के खिलाफ जनादेश है तो वहीं इसमें क्षेत्रीय दलों के बढ़ते वर्चस्व की धमक भी है और इसमें निहित है जन विरोधी आर्थिक नीतियों के लिए चुनौती और सामाजिक कल्याण की आशाओं की धमक।

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