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शुक्रवार, 26 मई 2017

शिक्षा क्षेत्र पर फासीवादी हमले के तीन साल

महेश राठी
मोदी सरकार के पिछले तीन साल भारतीय शिक्षा प्रणाली पर हमले के तीन साल हैं। इस हमले को किसी एक पक्षीय रूप से ना समझा जा सकता है ना ही परिभाषित किया जा सकता है, वास्तव में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की राजनीतिक ईकाई भाजपा नीत एनडीए सरकार का यह हमला बहुआयामी है। इस हमले की जड़ में सांप्रदायिक राष्ट्रवाद और कारपोरेट का गठजोड और उसके द्वारा तैयार की गई तथाकथित वर्गीय विकास की अवधारणा है। विकास की फासीवादी अवधारणा का यह हमला शिक्षक वर्ग, तार्किक और वैज्ञानिक शिक्षा प्रणाली, छात्रों समान्यतः पूरे छात्र समुदाय और विशेषकर वंचित वर्ग के छात्रों, शिक्षण संस्थानों की स्वायतत्ता के साथ अंततः यह हमला सीधे तौर पर देश के जनवादी, धर्मनिरपेक्ष ढ़ांचे और नागरिक कल्याण और नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों पर है।
शिक्षा के बजट में कटौती
मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद शिक्षा के लिए आवंटित बजट में लगातार उल्लेखनीय कटौती देखी जा रही है। मोदी सरकार के पहले बजट से ही यह कटौती साफ देखी जा सकती है। मोदी सरकार ने 2014-15 के अपने बजट में स्कूल शिक्षा और साक्षरता के नाम पर 45722 करोड रूपये का आवंटन किया जो उसकी पूर्ववर्ती सरकार के बजट में इसके लिए किये गए बजटीय प्रावधान से 1134 करोड रूपये कम था। उसके पश्चात अगले बजट में सरकार ने इस मद के लिए अनुमानित खर्च के रूप में 42187 करोड रूपये खर्च करने का लक्ष्य रखा जिसे बाद में कम करके 3535 करोड कर दिया गया। फिर सरकार ने अगले 2016-17 के बजट में इसमें कुछ सुधार किया पंरतु सत्ता में आने के बाद अभी तक मोदी सरकार स्कूली शिक्षा एवं साक्षरता के लिए आवंटित बजट में कुल 3302 करोड रूपये की कटौती कर चुकी है। पिछली सरकार के बजट की तुलना में यह कटौती 7 प्रतिशत रही है जबकि इस दौरान स्कूली शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों की संख्या में 2 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से बढ़ोतरी हो रही है अर्थात तीन साल में स्कूली शिक्षा में शामिल होने वाले छात्रों की संख्या में 6 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है।
इसके अतिरिक्त सरकार की एक प्रमुख योजना सर्व शिक्षा अभियान के लिए भी 2016-17 के बजट में मोदी सरकार ने 1597 करोड रूपये की कटौती की है। वर्तमान में मोदी सरकार ने इस मद के लिए 22500 करोड रूपये आवंटित किये हैं जबकि 2014-15 में इस मद में 24097 करोड रूपये आवंटित किये गये थे। शिक्षक प्रशिक्षण और साक्षर भारत के लिए भी आवंटित बजट को 1158 करोड से घटाकर 879 करोड कर दिया गया है। बेहद महत्वपूर्ण मीड डे मील के बजट में भी पिछले दो सालों में 823 करोड अर्थात 8 प्रतिशत की कटौती की गई है। इसी प्रकार कुल सकल घरेलू उत्पाद में शिक्षा क्षेत्र की हिस्सेदारी में लगातार एक गिरावट दर्ज की जा रही है। मोदी सरकार के सत्ता में आने को बाद 2014-15 में इसमें 0.55 प्रतिशत, 2015-16 में 0.50 प्रतिशत और 2016-17 में 0.48 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है। इसी क्रम में केन्द्र की मोदी सरकार ने अपने शिक्षा के बजट में लगातार कमी की है। 2014-15 में कुल बजट का यह जहां 4.1 प्रतिशत था तो 2015-16 में 3.8 प्रतिशत और 2016-17 में घटकर महज 3.7 प्रतिशत रह गया था। इसी प्रकार वाम समर्थित यूपीए1 के दौरान लागू किया गया शिक्षा अधिकार अधिनियम भी उपयुक्त बजटीय आवंटन की कमी में लगातार निष्प्रभावी हो रहा है।
फीस बढ़ोतरी
यह बजटीय कटौती सीधे छात्रों और विशेषकर वंचित वर्ग के छात्रों को अधिक प्रभावित कर रही है। इस बजटीय कटौती के कारण हमले पिछले दिनों विभिन्न शिक्षण संस्थानों में फीस बढ़ोतरी देखी गई है और इस फीस बढ़ोतरी का कोई विशेष प्रतिरोध भी सड़कों पर दिखाई नही दिया है। केवल चण्डीगढ़ विवि का छात्र आंदोलन एक अपवाद था और चण्डीगढ़ विवि के छात्रों ने अपने प्रभावी और निर्णायक आंदोलन से विवि प्रशासन को बढ़ी हुई फीस वापस लेने पर विवश कर दिया। हालांकि आईआईटी में बीटेक की फीस को मौजूदा सरकार ने 90 हजार से बढ़ाकर सीधे 2 लाख रूपये कर दिया और सीएसआईआर और एनईटी की प्रवेश परीक्षा फीस में भी भारी बढ़ोतरी कर दी और यह बढ़ी हुई फीस सभी छात्रों और वंचित वर्ग के छात्रों को विशेष रूप से प्रभावित करने वाली है।
इस फीस बढ़ोतरी का एक दूसरा पहलू छात्रवृति के निष्पादन में भी दिखाई दिया है। विभिन्न संस्थान सामाजिक रूप से वंचित तबके को छात्रों को छात्रवृति प्रदान करते हैं परंतु इस बढ़ी हुई फीस ने उन्हें दी जाने छात्रवृति को भी लंबित कर दिया है और राजीव गांधी राष्ट्रीय छात्रवृति योजना, मौलाना आजाद राष्ट्रीय छात्रवृति योजना, सीएसआइआर- जेआरएफ और यूजीसी-जेआरएफ जैसे संस्थान जो अनेक छात्रों को छात्रवृति उपलब्ध कराते रहे हैं उन्होंने भी छात्रवृति को आठ से नौ महीने तक लंबित कर दिया। जिस कारण सैंकड़ों छात्रों की शिक्षा पर इसका सीधा असर हुआ और उन्हें अपनी शिक्षा जारी रखने में भारी परेशानी का सामना करना पड़ा। हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला की इसी प्रकार की एक लाख सत्तर हजार रूपये छात्रवृति रूकी हुई थी और उसका नतीजा रोहित वेमुला की आत्महत्या के रूप में पूरी दुनिया के सामने था। यूजीसी द्वारा नॉन नेट छात्रवृति को रोके जाने का मसला भी उच्च शिक्षा के 2014-15 के बजट में सरकार द्वारा 3900 करोड रूपये की कटौती का ही परिणाम है। सरकार शिक्षा के बजट में कटौती किये जा रही है जबकि शोध कार्यो और उच्च शिक्षा में संलग्न छात्रों की मांग छात्रवृति को मुद्रास्फीति से जोडे जाने की रही है।
वास्तव में अपने बजटीय भाषण में वित्तमंत्री द्वारा उच्च शिक्षा पर जोर देना भी जुमलेबाज सरकार की जुमलेबाजी और झूठ के अलावा कुछ नही है। सरकार एक तरफ कौशल विकास क बात करती है तो दूसरी तरफ कौशल विकास के लिए बने उच्च शिक्षा संस्थानों के लिए अवंटित बजट में भारी कटौती करती है। वित्तमंत्री ने अपने पहले बजटीय भाषण में ही ऑनलाइन के माध्यम से उद्यम शिक्षा और प्रशिक्षण ;एमओओसीएसद्ध के बारे में बड़ी बाते की थी। परंतु शिक्षा में कटौती ने उनके दोमुंहेपन को साफ जाहिर कर दिया था। जहां वित्तमंत्री एक तरफ कौशल विकास की बात कर रहे थे तो दूसरी तरफ यूजीसी/ आईआईटी/ आईआईएम/ एनआईटी के बजट में 50 प्रतिशत से अधिक की कटौती की शुरूआत कर रहे थे और आईआईटी और आईआईएम और एनआईटी जैसे शिक्षण संस्थानों में फीस बढ़ोतरी की योजना पर भी काम कर रहे थे।
मोदी सरकार की इन कोशिशों में अन्तराष्ट्रीय वित्त पूंजी के विभिन्न संस्थानों के निर्देश पर शिक्षा के निगमीकरण की स्पष्ट और जोरदार आहट सुनी जा सकती है।
शिक्षण संस्थानों पर संघी प्रचारकों का कब्जा
2014 के लोकसभा चुनावों में भारी जीत के बाद भाजपा ने संघ से जुड़े हुए लोगों एवं संघ के प्रचारकों को शिक्षा और साहित्य के विभिन्न केन्द्रीय संस्थानों में स्थापित करने और पाठ्य पुस्तकों और पाठ्यक्रम को विकृत करने के काम को एक अभियान की तरह से करना शुरू कर दिया है। संघ और भाजपा ने जहां एक ओर दीनानाथ बत्रा जैसे लोगों को अपनी तथाकथित नई शिक्षा नीति बनाने का जिम्मा दिया है तो वहीं देश के विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थानों में संघ के लोगों की नियुक्ति करने के काम में भी उतनी ही तत्परता दिखाई है। शिक्षण संस्थानों, मंत्रालयों और सरकार द्वारा संचालित संस्थानों में संघ के लोगों की नियुक्ति दरअसल नीति निर्धारक पदों को कब्जा करके देश की तमाम शिक्षा व्यवस्था पर काबिज होने और उसे अपनी वैचारिक आवश्यकता के अनुरूप बदलने की मुहिम का हिस्सा भर है। भारतीय इतिहास शोध परिषद में एच वाय सुदर्शन राव, एबीवीपी के पूर्व संगठन सचिव राम बहादुर राय को इंदिरा गांधी केन्द्रीय राष्ट्रीय कला केन्द्र का मुखिया बनाया है और आरएसएस के मुखपत्र के पूर्व संपादक बलदेव शर्मा को नेशनल बुक ट्रस्ट का जिम्मा सौंपा है। इसी प्राकर विभिन्न विश्वविद्यालयों के उप कुलपति पदों पर भी भाजपा और संघ से जुडे हुए लोगों को स्थापित करने का काम किया है। हैदरबाद केंन्द्रीय विश्वविद्यालय, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, एफटीआईआई, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, आईआईएमसी आदि सभी संस्थानों संघ से जुडे़ लोगों की पैठ बन चुकी है और अब वह इन सभी संस्थानों में संघी एजेंडा लागू करने को आतुर हैं। छात्रों के दमन से लेकर फीस बढ़ोतरी और पाठ्यक्रम बदलने तक सभी इनके एजेंडे का हिस्सा है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय पर तो एक ऐसी व्यक्ति का कब्जा है, जो कहता है कि लडकियों को रात में पढ़ना नही चाहिए और यह भी तय करना चाहता है कि उन्हें क्या पहनना और क्या खाना चाहिए। उक्त उप कुलपति का संघ से इतना सीधा संबंध है कि वह 2014 के चुनावों के दौरान मोदी की प्रचार रैलियों में भी दिखाई दिये।
सरकार का छात्रों के
खिलाफ मोर्चा
मोदी सरकार ने पिछले तीन सालों में लगता है कि विश्वविद्यालय परिसरों में छात्रों के खिलाफ युद्ध की घोषणा ही कर दी है। अपने छात्र संगठन एबीवीपी से द्वारा विरोधी छात्रों को निशाना बनाने से लेकर प्रशासन द्वारा छात्रों को तंग करने के सभी औजार मोदी सरकार कर रही है। पिछले तीन सालों में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से लेकर हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय, जाधवपुर विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, गुजरात विश्वविद्यालय, एफटीआईआई और आईआईटी मद्रास तक सभी परिसर देश के सबसे अशांत स्थानों में बदल चुके हैं।
सत्ता में आते ही मोदी सरकार ने मानों छात्र समुदाय पर हमलों की झडी लगा दी थी। सबसे पहले अक्टूबर 2015 में यूजीसी द्वारा नॉन-नेट छात्रवृति को बंद करने से शुरू हुआ यह छात्र प्रतिरोध अब फैलकर हरेक विश्वविद्यालय परिसर में अपनी धमक दे चुका है। जवाहर लाल नेहरू छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार के नेतृत्व में छात्रों ने लंबे समय तक विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का घेराव अपनी मांगों के समर्थन में किया।
इसके बाद जनवरी 2016 में रोहित वेमुला की आत्महत्या ने तो मानो पूरे देश में एक सरकार विरोधी उबाल ही लाकर रख दिया था। रोहित वेमुला को संघी छात्र संगठन एबीवीपी, आंध्र के भाजपा नेता और केन्द्रीय मंत्री बंडारू दतात्रेय और मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी के सामूहिक कुकृत्य का शिकार होकर आत्महत्या करने के लिए मजबूर होनापड़ा। रोहित वेमुला की मौत देशभर के वंचित और प्रगतिशील छात्रों को सरकार के विरोध में सड़कों पर उतरने के लिए विवश कर दिया। सरकार और केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने संसद में रोहित वेमुला को लेकर गलत बयानी की और भाजपा ने अपने इस शर्मनाक कृत्य पर पर्दा डालने के लिए रोहित वेमुला को दलित छात्र मानने से ही इंकार कर दिया। रोहित वेमुला अंबेडकर स्टूडेंटस एसोसिएशन का सदस्य था और विश्वविद्यालय परिसर में उनके द्वारा अपने जनवादी अधिकारों के लिए किये जाने वाले संघर्षों को संघ के इशारे पर काम करने वाले उप कुलपति ने एबीवीपी की सिफारिश पर देश विरोधी करार दे दिया। रोहित वेमुला और उनके साथियों को विश्वविद्यालय से निलंबित कर दिया गया और वेमुला और उनके सहयोगियों की छात्रवृति रोक दी गई।
इसी वर्ष फरवरी 2016 में देशद्रोह के आरोप में एआईएसएफ के नेता और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया। अफजल गुरू विश्वविद्यालय परिसर में एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। जिसमें कश्मीर की अजादी के नारे लगे। कन्हैया कुमार के उपर झूठे मनगंढ़त आरोप लगाकर उन्हें जेल में डाल दिया गया। हालांकि कन्हैया कुमार ना ही उस कार्यक्रम के आयोजक थे और ना ही उन नारों में उनकी कोई भूमिका थी। फिर भी देश में वामपंथी राजनीति को निशाना बनाने और वाम राजनीति के गढ़ जेएनयू को बदनाम करने के लिए कन्हैया कुमार को एक बड़ी साजिश के तहत निशाना बनाया गया। जेएनयू उसके बाद लगातार मोदी सरकार के निशाने पर है। आईआईटी से आये इलेक्ट्रिक इंजीनियर और संघ के पसंदीदा उप कुलपति जिनका कोई उल्लेखनीय योगदान शिक्षा के क्षेत्र में नही रहा है, ने उसके बाद विश्वविद्यालय की दाखिला नीति के बहाने सामाजिक वंचित तबके और छात्राओं को निशाना बनाया। विश्वविद्यालय में अध्ययनरत ओबीसी और एससी, एसटी छात्रों ने दाखिले में 30 अंकों के वाइवा पर सवाल उठाया और वाइवा में शिक्षकों के भेदभाव को लेकर सवाल उठाये जिसे विश्वविद्यालय द्वारा गठित प्रो. अब्दुल नफे कमेटी ने सत्यापित किया। आंदोलन वंचित तबके के छात्रों को सवालों को अनसुना करते हुए उप कुलपति ने उन्हें पुलिस मुकदमों में फंसाने की मुहिम चलाई। उप कुलपति के बदले की भावना से आहत छात्रों ने लगातार आंदोलन रास्ता अपनाया। दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी विवि प्रशासन से कहा कि परिसर में इतनी अशांति है छात्र लगातार आंदोलन कर रहे हैं कुछ तो गलत है। आंदोलनकारी छात्रों पर कईं मुकदमें और कईं जांच उप कुलपति ने बिठा दी हैं। इस आंदोलन को लेकर जेएनयू के छात्र दिलीप यादव पांच दिनों तक आमरण अनशन पर रहे और हालत बिगडने पर उन्हें अस्पताल में दाखिल किया गया परंतु जेएनयू प्रशासन अभी भी बीमार की तरह व्यवहार कर रहा है और वंचित छात्र विरोधी अपने रवैये को बदलने के लिए तैयार नही है।
कमोबेश इसी प्रकार की वंचित वर्ग विरोधी भावना आईआईटी मद्रास प्रशासन ने अंबेडकर पेरियार स्टडी सर्कल पर रोक लगाकर दिखाई। वास्तव में यह संघ और भाजपा की ब्राहमणवादी और मनुवादी मानसिकता है जो वंचित तबकों के नेताओं की पहचान और उनकी राजनीतिक विरासत को सहन करना ही नही चाहती है। फिल्म एवं टेलिविजन इंस्टिटयूट ऑफ इण्डिया पूणे में भाजपा द्वारा सी ग्रेड फिल्मों के नायक गजेन्द्र चौहान की नियुक्ति को लेकर विरोध आंदोलन महीनों तक चला और संस्थान में शिक्षा कार्य ठप रहा। सरकार असंवेदनहीन होकर लगातार उनकी मांगों को अनसुना करती रही और छात्रों को संतुष्ट करने के लिए सरकार की तरफ से बातचीत की कोई पहल नही की गई। हालांकि एफटीआईआई के समर्थन में पूरे देश में छात्र सड़कों पर उतरे।
जाधवपुर विवि भी केन्द्र की मोदी सरकार के निशाने पर रहा। जाधवपुर विवि में अक्टूबर में आंदोलन की शुरुआत हुई और उसके बाद फरवरी 2016 के बाद जेएनयू और कन्हैया कुमार के समर्थन में और अभिव्यक्ति की आजादी के लिए छात्र सड़कों पर उतरे। इलाहाबाद विवि की छात्रसंघ अध्यक्ष ऋचा सिंह भी एबीवीपी से अपने टकराव के चलते लगातार संघी छात्र गुण्ड़ों के निशाने पर रही। छात्रसंघ अध्यक्ष जोकि एबीवीपी को मात देकर एक स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीती थी, उन्हें लगातार एबीवीपी का विरोध झेलना पड़ा और इस विरोध को मोदी के सत्ता में आने के बाद बेशुमार ताकत मिली और उन्होंने चुनी हुई अध्यक्षा पर विभिन्न प्रकार से हमले तेज किये। जम्मू एनआईटी भी दक्षिणपंथी छात्रों की दूषित मानसिकता का शिकार हुई। कई दिनों तक धरने और प्रदर्शनों का दौर चला अभी शान्ति हैं परंतु एक दरार स्थानीय और बाहरी के बीच दक्षिणपंथी राजनीति ने बना दी है। अभी हाल ही में अलीगढ़ विश्वविद्यालय एबीवीपी और अन्य छात्रों के बीच आपसी संघर्ष के कारण फिर से चर्चाओं में रहा है। उन पर किसी वास्तव में एबीवीपी विश्वविद्यालयों में अशांति फैलाने माहौल बिगाडने का संघी औजार भर है। चण्डीगढ़ विवि में बढ़ी फीस के खिलाफ छात्रों की नाराजगी और उस पर केन्द्र शासित प्रदेश की पुलिस का बर्बरतापूर्ण हमला पूरी दुनिया ने देखा। छात्रों को इतनी बर्बरता के साथ पीटा गया देखकर लगता था कि मानों कि उन पर बदले की भावना से हमला किया गया हो।
पाठ्यक्रम में दक्षिणपंथी बदलाव
वास्तव में शिक्षण संस्थानों और नीति निर्धारक संस्थानों पर कब्जे की संघी कोशिश का एक प्रमुख प्रयास पाठ्यक्रम में बदलाव करने को लेकर भी है। संघ और भाजपा अपने सांप्रदायिक राष्ट्रवाद के एजेंडे को आगे ले जाने और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के नजरिये से देश के इतिहास को तोड मारोड कर पेश करना चाहते हैं। पाठ्यक्रम में इस प्रकार के बदलाव की कोशिशे ना केवल प्राचीन इतिहास को लेकर की जा रही हैं बल्कि बेहद चालाकी के साथ भारत के आधुनिक इतिहास के साथ भी इस प्रकार की छेडखानी करने की कोशिश संघ संरक्षित भाजपा सरकारों द्वारा की जा रही है। हॉल ही में राजस्थान की सामाजिक विज्ञान की कक्षा आठ के पाठ्यक्रम में से बेहद धूर्ततापूर्ण तरीके से भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को गायब कर दिया गया। अब उस पुस्तक में ऐसा कोई जिक्र नही है कि भारत का पहला प्रधानमंत्री कौन था।
हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक राष्ट्रवादियों का इतिहास पुनर्लेखन का यह अभियान काफी पुराना है। 1977 में बनी मोरारजी देसाई सरकार में जनसंघ के सांसदों ने इस प्रकार की मांग उस समय भी की थी। उस समय उन्होंने रोमिला थापर द्वारा लिखित मध्यकालीन भारत की किताब, आधुनिक भारत के इतिहास की बिपिन चन्द्रा और स्वतंत्रता संघर्ष की ए त्रिपाठी, बरूण डे और बिपिन चन्द्रा की किताब को पाठ्यक्रम से हटा देने का सवाल उठाया था। जिसे लेकर जनसंघ के सदस्यों ने उस समय के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को एक ज्ञापन भी दिया था। उनके ज्ञापन में कहा गया था कि इन किताबों में कुछ मुस्लिम शासकों जैसे औरंगजेब की भूमिका की कठोर आलोचना नही की गई है और स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में बाल गंगाधर तिलक और अरविंद घोष के योगदान को ठीक तरीके से सराहा नही गया है। आरएसएस ने अलग से अपने मुखपत्र आर्गेनाइजर ;23 जुलाई 1978द्ध में इन किताबों को पाठ्यक्रम से हटाने के लिए एक अभियान चलाया था। हालांकि कुछ राज्यों में 1990 के बाद भाजपा सरकारें बनने के बाद भाजपा ने पाठ्यक्रमों में बदलाव किये भी थे। केशुभाई पटेल के नेतृत्व में 1995 में भाजपा सरकार ने गुजरात में अपनी पाठ्य पुस्तकों में पढ़ाया कि मुस्लिम, ईसाई और पारसी सभी विदेशी हैं।  
दरअसल स्वतंत्रता संग्राम के दौरान तिलक और अरविंद घोष ने राष्ट्रवाद की हिदुत्ववादी अवधारणा को बढ़ाने का काम किया और हिदुत्ववादी गौरव को प्रचारित प्रसारित करने की कोशिश कांग्रेस में रहकर की। उनका मानना था कि हिंदुत्ववादी गौरव को प्रसारित करने और नये सिरे से उसकी व्याख्या करने से हिंदू एकता को बल मिलेगा। मौजूदा मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद इस दिशा में प्रयास किये हैं। मोदी सरकार में मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी ने कक्षा आठ, नौ और दस के पाठ्यक्रम में वेद, उपनिषद के कुछ हिस्सों को शामिल करने के निर्देश दिये। इसके अलावा प्राप्त रिपोर्टो के अनुसार राजस्थान सरकार ने इस दिशा में कईं कोशिशे की राज्य सरकार के शिक्षा मंत्री वासुदेव देवनानी ने एक वैकल्पिक इतिहास के प्रस्ताव को पूरा समर्थन दिया। वैकल्पिक इतिहास का यह प्रयास बताता है कि हल्दी घाटी युद्ध में वास्तव में महाराणा प्रताप की हार ही नही हुई थी और इस युद्ध में उन्होंने मुगल सम्राट अकबर को हरा दिया था। उक्त सरकार के कई अन्य मंत्रियों का भी मानना है कि अभी तक छात्र जो इतिहास पढ़ रहे हैं वह ठीक नही है और वह इतिहास विकृत है। राजस्थान सरकार पाठ्यक्रम में इस प्रकार के बदलाव के लिए कुख्यात है। कक्षा आठ की पाठ्य पुस्तक को एक समीक्षा कमेटी द्वारा फिर से तैयार किया गया। यह पुस्तक सिंधु घाटी सभ्यता को सिंधु घाटी संस्कृति के रूप में पढ़ाती और बताती है कि आर्य भारत के ही मूल निवासी थे। इस किताब में से कई नामों को योजनाबद्ध तरीके से गायब कर दिया गया है। जैसे कि किताब में स्वतंत्रता संग्राम में सरोजनी नायडू एवं अन्य कांग्रेस नेताओं की कोई चर्चा नही है। प्राप्त रिपोर्टों के अनुसार नेल्सन मंडेला और उनके प्रयास और आंदोलन किताब से गायब हैं और इसी प्रकार महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे का जिक्र भी किताब में नही है। स्वतंत्रता संग्राम में जवाहर लाल नेहरू की भूमिका को काट दिया गया है।
इसके अलावा गुजरात भी इस प्रकार के प्रयोगों की जमीन बन रही है। ना केवल इतिहास को विकृत किया जा रहा है बल्कि हिटलर की गौरवशाली व्याख्या पाठ्य पुस्तकों में की गई थी। हिटलर के बारे में बताया गया कि हिटलर ने किस प्रकार जर्मन के गौरव को पुनर्स्थापित किया और नई आर्थिक नीति तैयार कर देश को एक बड़ी ताकत बनाया। हिटलर का बखान करते हुए उसे यहूदियों का विरोधी और जर्मन नस्ल की श्रेष्ठता को स्थापित करने वाला बताया गया था। 2005 में इस्राइल के राजनयिक के गुजरात दौरे के बाद और राजनयिक के विरोध के बाद इस पाठ को किताब में हटाया गया था। मई 2016 में गुजरात शिक्षा बोर्ड ने अर्थशास्त्रीय विचार नामक एक पाठ शुरू किया जिसमें दीन दयाल उपध्याय, कौटिल्य और महात्मा गांधी को अर्थशास्त्र विचार के रूप में पेश किया गया। मई 2014 में गुजरात शिक्षा विभाग ने नरेन्द्र मोदी की जीवनी को शिक्षा में शामिल करने की घोषणा की थी जिसका अनुसरण करते हुए छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश आदि राज्यों ने भी इसी प्रकार की घोषणाएं कर डाली थी। इस पाठ में उनके अर्थशास्त्रीय विचारों के अलावा उननके व्यक्तित्व पर अधिक जोर दिया गया। सितंबर 2015 में हरियाणा सरकार ने घोषणा की कि स्कूल पाठ्यक्रम में दीनानाथ बत्रा की लिखी नैतिक शिक्षा को शामिल किया जायेगा। दीनानाथ बत्रा आरएसएस समर्थित शिक्षा बचाओ आंदोलन समिति के संयोजक हैं और आजकल भाजपा शासित राज्यों की शिक्षा को नया रूप देने में लगे हैं। बत्रा कहते हैं कि लेख, प्रस्ताव, कहानी और कविताओं के माध्यम से बच्चों को भारतीय मूल्य और राष्ट्रवाद सिखाया जायेगा।
वास्तव में सांप्रदायिक राष्ट्रवाद का फासीवादी एजेंडा संघ का एक ऐसा जुड़वा एजेंडा है जो हिंदुत्ववादी फासीवाद और निगमीय विकास का गठजोड़ है और शिक्षा का सांप्रदायिकरण इसका एक प्रमुख औजार है। इसी औजार का इस्तेमाल संघ बहुआयामी तरीके से कर रहा है, जिसमें शिक्षा के निगमीकरण से लेकर शिक्षक आंदोलन पर हमले, छात्र आंदोलन को कुचलना, शिक्षण संस्थानों पर संघी मानसिकता वाले लोगों का वर्चस्व और पाठ्यक्रम में बदलाव सभी कुछ शामिल हैं।

1 टिप्पणी:

  1. सार्थक और तथ्यपरक आलेख| खतरे की घंटी बज चुकी है| विश्व के पूंजीवादी ताकतों के सामने घुटने टेक चुकी है केंद्र सरकार देशी शिक्षा व्यवस्था को चौपट कर रही है|

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