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बुधवार, 13 फ़रवरी 2019

इंक़लाब जिन्दा है

मेरी माँ
दीवार पर टँगी एक
 तस्वीर दिखाती थी,
नई दुनिया की राह बताती थी,
एक दिन इंक़लाब आयेगा समझाती थी !
मेरे पिता,
एक सपने के लिए लड़ने गए हैं
वो बताती थी !
सपना जो इंक़लाब है,
सपना जो नया ख्वाब है,
जब आएगा इंक़लाब, लौटेंगे पिता !
हल पर कसी मुट्ठी से
नहीं छीने जायेंगे निवाले !
पहाड़ तोड़ने वाले हाथों को
नहीं होगा टूट जाने का डर !
सदियों के सीनों पर अब
नहीं बनेंगी दर्द की तस्वीरें !
रेशमी बदनों पर बनी खरोंचे
नहीं बना करेंगी मर्दानगी के सबूत !

इतिहास की करवट के बीच,
शहर की चमक में आता हूँ !
माँ की कहानियों में झूठ,
पिता के सपने में नाउम्मीदी पाता हूँ !

मगर, अब भी जब कभी
किसान की बेवजह मौत,
दिहाड़ी के बदले मजदूर को मिली दुत्कार,
बार बार खरोंचे जाने का दस्तावेज बनी,
औरत की देह को सामने पाता  हूँ,
तो, मेरी माँ  की झूठी कहानियों,
पिता के नाकाम सपने को तलाशने,
अपने भीतर उतर जाता हूँ,
तो उस इंक़लाब,
उस नए ख्वाब को,
अपनी माँ,
अपने पिता को
अभी भी,
खुद में जिन्दा पाता हूँ !


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